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६४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसको परम्परा
अभिनिवेशों के कारण या तो सत्य को देखते ही नहीं या देखकर भी अपने पक्ष-प्रतिपादन हेतु उसे दृष्टि से ओझल कर देते हैं। मैं पाठकों से अनुरोध करूँगा कि दसवें अध्याय के दूसरे और तीसरे सूत्र के भाष्य और सर्वार्थसिद्धि टीका के इन अंशों को देखकर स्वयं निर्णय करें कि कौन विकसित है ?
सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा भाष्य को विकसित बताने के लिए पाँचवें अध्याय के काल के उपकार के प्रतिपादक सूत्र को भी चर्चा पं० जी ने की है। वे लिखते हैं कि ऐसी ही एक बात, जी विशेष ध्यान देने योग्य है, पाँचवें अध्याय के काल के उपकार के प्रतिपादक सूत्र के प्रसंग से आती है। प्रकरण परत्व और अपरत्व का है। ये दोनों कितने प्रकार के होते हैं इसका निर्देश सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य दोनोंमें किया है। सर्वार्थसिद्धि में इनके प्रकार बतलाते हुए कहा है-परत्वापरत्वे क्षेत्रकृते कालकृते च स्तः। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में ये दो भेद तो बतलाये हो गये हैं, साथ ही वहाँ प्रशंसाकृत परत्वापरत्व का स्वतन्त्र रूप से और ग्रहण किया है । वाचक उमास्वाति कहते हैं-परत्वापरत्वे त्रिविधे-प्रशंसाकृते क्षेत्रकृते कालकृते इति ।। __इतना ही नहीं। हम देखते हैं कि इस सम्बन्धमें तत्त्वार्थवार्तिककार तत्त्वार्थभाष्य का ही अनुसरण करते हैं। उन्होंने काल के उपकार के प्रतिपादक सूत्र का व्याख्यान करते हुए परत्व और अपरत्व के इन तीन भेदों का उल्लेख इन शब्दों में किया है'क्षेत्रप्रशंसाकालनिमित्तात्परत्वापरत्वानवधारणमिति चेत् ?
न, कालोपकारप्रकदणात। ____ अतएव क्या इससे यह अनुमान करने में सहायता नहीं मिलती कि जिस प्रकार इस उदाहरण से तत्त्वार्थभाष्य तत्त्वार्थवार्तिककारके सामने था इस कथन की पुष्टि होती है उसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्य सर्वार्थसिद्धि के बाद की रचना है इस कथन की भी पुष्टि होती है । ___ यह सत्य है कि जहाँ वाचक उमास्वाति ने 'परत्वापरत्व' के प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत और कालकृत ऐसे तोन भाग माने हैं वहाँ सर्वार्थसिद्धि में केवल परत्वापरत्व के क्षेत्रकृत और कालकृत ऐसे दो भागों की चर्चा हई है, लेकिन यहाँ भी यदि हम मूलभाष्य और सर्वार्थसिद्धि को सामने रखकर देखें तो हमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि सर्वार्थसिद्धिकार ने परत्वापरत्व १. देखें-सर्वार्थसिद्धि, सं० ५० फलचन्दजी भूमिका पृ० ४५-४६ ।
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