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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ५५ 'कुत इत्युक्ते मनुष्यः कर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणप्रारम्भको भवति । क्षपणप्रारम्भकालात्पूर्व तिर्यक्षु' बद्धायुष्कोऽपि उत्तमभोगभूमितिर्षक्पुरुषप्वेवोत्पद्यते न तिर्यस्त्रोणां; द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासम्भवात् । एवं तिरश्चामप्यपर्याप्तकानां क्षायोपशमिकं ज्ञेयं न पर्याप्तकानाम् ।' यहाँ 'द्रव्यवेदस्त्रीणां' यह वाक्य रचना आगम परिपाटी के अनुकूल नहीं है अतएव भ्रमोत्पादक भी है, क्योंकि आगम में तिर्यञ्च, तिर्यञ्चिनी और मनुष्य, मनुष्यनो ऐसे भेद करके व्यवस्था की गई है तथा इन संज्ञाओं का मूल आधार वेद नोषाय का उदय बतलाया गया है। हमारे सामने यह प्रश्न था । हम बहुत काल से इस विचार में थे कि यह वाक्य ग्रन्थ का मूल भाग है या कालान्तर में उसका अंग बना है। तात्त्विक विचारणा से बाद भी इसके निर्णय का मुख्य आधार हस्तलिखित प्राचीन प्रतियाँ ही थीं। तदनुसार हमने उत्तर भारत और दक्षिण भारत की प्रतियों का संकलन कर शंकास्थलों का मुद्रित प्रतियों से मिलान करना प्रारम्भ किया। परिणामस्वरूप हमारो धारणा सही निकली । यद्यपि सब प्रतियों में इस वाक्य का अभाव नहीं है पर उनमें से कुछ प्राचीन प्रतियाँ ऐसी भी थीं जिनमें यह वाक्य नहीं उपलब्ध होता है।" यह 'द्रव्यवेदस्त्रीणां' पाठ पण्डित जी को वस्तुतः इसलिये खटका कि आगे चलकर स्त्रो मुक्ति निषेध की अवधारणा के समर्थन में षट्खण्डागम के मनुष्यनी शब्द की व्याख्या में उसका जो भाव स्त्री अर्थ लाया गया है, वह इसके विरोध में जाता है। दूसरा पक्ष यहाँ यह कह सकता था कि सर्वार्थसिद्धि में तो 'स्त्री' का अर्थ द्रव्य वेद किया है आप भाव स्त्री कैसे करते हैं । अतः पण्डितजी ने मलपाठ में से द्रव्यवेद स्त्री शब्द ही पुरानो प्रति के नाम पर हटा दिया । यद्यपि वे यह नहीं बता सके कि यह पाठ किस प्रति में नहीं मिलता है । आगे पुनः पण्डित जी लिखते हैं___ "इसी सूत्र की व्याख्या में दूसरा वाक्य 'क्षायिक पुनर्भाववेदेनैव' मुद्रित हुआ है । यहाँ मनुष्यिनियों के प्रकरण से यह वाक्य आता है । बतलाया यह गया है कि पर्याप्त मनुष्यिनियों के ही तीनों सम्यग्दर्शनों को प्राप्ति सम्भव है, अपर्याप्त मनुष्यिनियों के नहीं।' निश्चयतः मनुष्यिनी के क्षायिक सम्यग्दर्शन भाववेद की मुख्यता से ही कहा है यह द्योतिक करने के लिए इस वाक्य की सृष्टि की गई है। किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि आगम में 'मनुष्यिनी' पद स्त्रीवेद के १. सर्वार्थसिद्धि सं० पं० फूलचन्द्रजी प्रस्तावना पृ० १-७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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