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________________ ५२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा (v) पुनः तत्त्वार्थ के श्वेताम्बरमान्य मूल पाठ और उसके भाष्य में असंगति दिखाते हुए आदरणीय मुख्तार जो लिखते हैं कि "श्वे० सूत्रपाठके चौथे अध्याय का २६वाँ सूत्र निम्न प्रकार है"सारस्वतादित्यबन्ह्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमहतोऽरिष्टाश्च ।" इसमें लोकतान्तिक देवों के सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्टः ऐसे नव भेद बतलाये हैं, परन्तु भाष्यकार ने पूर्व सूत्रके भाष्य में और इस सूत्र के भाष्य में भो लोकान्तिक देवों के भेद आठ ही बतलाये हैं और उन्हें पूर्वादि आठ दिशा-विदिशाओं में स्थित सूचित किया है; जैसा कि दोनों सूत्रोंके निम्न भाष्यों में प्रकट है : "ब्रह्मलोक परवृपाऽटा दिक्षु का भन्ति । तद्यथा-" "एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा ब्रह्मलोकन्ध पूतिरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भवन्ति यथासंख्यम् ।” इससे सूत्र और भाष्यका भेद स्पष्ट है। सिद्धसेनगणी और पं० सुखलालजी ने भी इस भेद को स्वीकार किया है। जैसा कि उनके निम्नवाक्यों से प्रकट है "नन्वेवमेते नवभेदा भवन्ति, भाज्यकता वाऽविधा इति मुद्रिताः।" __ "इन दो सूत्रों के मूलभाष्य में लोकान्तिक देवोंके आठ ही भेद बतलाये हैं, नव नहीं।" ____ इस विषय में सिद्धसेनगणी तो यह कहकर छुट्टी पा गये हैं कि लोकान्त में रहने वालों के ये आठ भेद जो भाष्यकार सूरि ने अंगीकार किये हैं वे रिष्टविमान के प्रस्तार में रहनेवालों की अपेक्षा नवभेदरूप हो जाते हैं, आगम में भी नव भेद कहे हैं, इसमें काई दोष नहीं परन्त मल सूत्र में जब स्वयं सुत्रकार ने नव भेदों का उल्लेख किया है तब अपने ही भाष्य में उन्होंने नव भेदों का उल्लेख न करके आठ भेदों का ही उल्लेख क्यों किया है, इसका वे कोई माकूल ( युक्तियुक्त ) वजह नहीं बतला सके। इसी से पं० सुखलालजो को उस प्रकार से कहकर छटो पा लेना उचित नहीं ऊँचा और इसलिये उन्होंने भाष्य को स्वोपज्ञता में बाधा न १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद् प्रकाश, पृ० १२८-२९ । २. 'उच्यते-लोकान्तवर्तिनः एतेष्टभेदाः सूरिणोपात्ताः रिष्टविमानप्रस्तारवर्ति भिनवधा भवन्तीत्यदोषः। आगमे तु नवर्धवाधीता इति ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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