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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ४३ यह है कि इस प्रसंग में भाष्यकार सर्वपर्यायों के ज्ञान के निषेध पर बल देना चाहता है और इसलिए द्रव्य के आगे सर्व पद को उद्धृत करना उसे आवश्यक नहीं लगा होगा । पुनः 'द्रव्येषु' पाठ स्वतः बहुवचनात्मक प्रयोग होने से उसके सर्व विशेषण को यहाँ उद्धृत करना आवश्यक भी नहीं था। अतः सर्व पद का उल्लेख होना या न होना बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य नहीं है। पुनः विस्मरण अथवा लिपिकार द्वारा सर्व पद को छोड देना भी असम्भव नहीं है, क्योंकि तत्त्वार्थ और उसके स्वोपज्ञ भाष्य के काल तक लिखित ग्रंथों के माध्यम से अध्ययन करवाने की परम्परा जैनसंघ में नहीं थी, मौखिक परम्परा ही थी। अतः विस्मरण या लिपिकार का दोष सम्भव है । यदि उस सर्वार्थसिद्धि में, जिसके काल तक लिखने की प्रथा प्रारम्भ हो चुकी थी, आज सैकड़ों पाठभेद हैं, जिनका उल्लेख स्वयं० पं० फूलचन्दजी ने अपनी सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना में पृ० १-७ में किया है, तो तत्त्वार्थ और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में एक-दो स्थल पर पाठभेद होना कोई बहुत बड़ो बात नहीं है कि जिसके आधार पर भाष्य की स्वोपज्ञता को नकारा जा सके । पुनः यह भी सम्भव है कि भाष्यकार के काल में यही पाठ रहा हो और बाद में परिष्कारित हआ हो, किन्तु यह कहना तो अत्यन्त ही बचकाना लगता है कि सर्वार्थसिद्धि के पाठों के आधार पर भाष्यमान्य पाठ निश्चित हुआ है।
जब भाष्य के अनेकों अंश सर्वार्थसिद्धि में मूल पाठ के रूप में अथवा टीका के अंश में पाये जाते हैं तो यह कैसे कहा जा सकता है कि भाष्यकार ने सर्वार्थसिद्धि से पाठ उद्धृत किया होगा ? आश्चर्य तो यह होता है कि तत्त्वार्थ और उसके भाष्य को उमास्वाति को कृति मानकर भी यह कहना कि वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य लिखते समय सर्वार्थसिद्धि मान्य सूत्रपाठ को ग्रहण किया होगा। यदि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता वाचक उमास्वाति से भिन्न कोई आचार्य या आचार्य गृद्धपिच्छ थे, तो फिर तत्त्वार्थसत्र के दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद देवनन्दी और अकलंक ने उनके नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया? अपनी परम्परा के उस आचार्य का जिसके ग्रन्थ पर टीकाकार टीका लिख रहा है, उल्लेख न करे, इससे दुर्भाग्यपूर्ण बात अन्य क्या हो सकतो है ? क्यों बाद के दिगम्बर आचार्यों ने अभिलेखों में उमास्वाति को तत्त्वार्थ का कर्ता माना । पुनः यह कल्पना करना कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति और तत्त्वार्थभाष्य के कर्ता उमास्वाति दो भिन्न व्यक्ति है और उनमें प्रथम दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर है ? यदि ऐसा ही है तो अकलंक जैसे समर्थ आचार्य ने भाष्य को कारिकाओं
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