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________________ २८ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा (vi) इसी प्रकार भाष्य की 'कालश्चेके' ५/३८) एवं 'एकादश जिने (९/११) की व्याख्याएँ तथा सिद्धों में लिंगद्वार और तीर्थद्वारों (१०/७) का भाष्यगत वक्तव्य तथा वस्त्र-पात्रसम्बन्धी उल्लेख (९/५, ९/७, ९/२६) भी दिगम्बर परम्परा के विपरीत जाते हैं, भाष्य में केवलज्ञान के पश्चात् केवली के दूसरा उपयोग मानने का जो मन्तव्य भेद है वह भी दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं दिखता (१/३१)। पं० सुखलालजी के अनुसार उपयुक्त. युक्तिओं से यही सिद्ध होता है कि वाचक उमास्वामी श्वेताम्बर परम्परा के हैं। (vii) पुनः प्रशमरति की तत्त्वार्थसत्र से तुलना करने पर जो समान-- ताएँ दृष्टिगत होती हैं, उनके आधार पर उसे भी उमास्वाति की कृति होने में सन्देह नहीं रह जाता। उसमें भी मुनि के वस्त्र-पात्र आदि का उल्लेख होने से यही सिद्ध होता है कि उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परा के थे। इस प्रकार पं० सुखलालजी, कापडियाजी आदि श्वेताम्बर परंपरा के विद्वान् तत्त्वार्थसूत्र, उसके स्वोपज्ञभाष्य और प्रशमरति की एककृतकता सिद्ध कर उमास्वाति को अपनी परम्परा का बताते हैं ।२ . (viii) तत्त्वार्थसूत्र और उसका भाष्य श्वेताम्बर परम्परा का है, इसका महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि तत्त्वार्थ के प्राचीन श्वेताम्बर टीकाकार सिद्धसेनगणि और हरिभद्र दोनों ही उन्हें अपनी परम्ररा का मानते हैं और जहाँ उन्हें तत्त्वार्थ अथवा उसके भाष्य का आगम से विरोध परिलक्षित होता है वहाँ उसका स्पष्ट निर्देश करते हए या तो वे आगम से उसका समन्वय स्थापित करते हैं या यह मान लेते हैं कि यह आचार्य की अपनी परम्परा होगी अथवा किसी दुर्विग्ध ने भाष्य का यह अंश विकृत कर दिया है। सिद्धसेनगणि लिखते हैं कि उमास्वाति तो वाचक मुख्य हैं, वाचक तो पूर्वो के ज्ञाता होते हैं, उन्होंने ऐसा आगम विरोधी कैसे लिख दिया, यहाँ अवश्य हो किसी दुर्विग्ध ने भाष्य को नष्ट कर दिया है। १. देखें-तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक पं० सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी-५, भूमिका भाग, पृ० १७ । २. वही. भूमिका भाग, पृ० १८ । ३. नेदं पारमर्ष प्रवचनानुसारि भाष्यं किं तहिं प्रमत्तगीतमेतत् । वाचको हि पूर्ववित् कथमेवंविधं आर्षविसंवादि निबध्नीयात् । सूत्रानवबोधादुपजाताभ्रान्तिना केनापि रचितमेतत् । -तत्त्वाधिगमसूत्र भाष्य ९/६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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