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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : २१ से केवल इसीलिए कतरा रहे हैं कि उसमें कुछ ऐसा भी है जो उनकी अपनी परम्परा के विरोध में जाता है । भाष्य में मात्र दो-तीन स्थलों पर वस्त्र, पात्र सम्बन्धी कुछ बातें हैं (देखें - भाष्य ९/५, ९/७, ९/२६), जो उनकी दृष्टि में दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाती है और केवल इसीलिए वे उसे अस्वीकार कर देते हैं। जबकि सूत्र और भाष्य में कुछ ऐसे भी तथ्य हैं जो वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के भी विरोध में जाते हैं । जिस प्रकार श्वेताम्बर टीकाकार भाष्यकार को अपनी परम्परा का मानते हुए भी उसके मतों को स्वीकार नहीं करते हैं, उसी प्रकार दिगम्बर विद्वान् भी ऐसा कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । यदि हम निष्पक्ष हृदय से विचार करें तो हमें यह प्रतीत होता है कि परवर्ती दिगम्बर परम्परा में जैसी कट्टरवादिता रही है, वैसी श्वेताम्बर परम्परा में नहीं रही है । यदि भाष्यगत और सूत्रगत पाठ में दो-तीन स्थलों पर जो थोड़ा सा अन्तर है, वह भाष्य की स्वोपज्ञता का विरोधी माना जा सकता है तो हम पूछना चाहेंगे कि सर्वार्थसिद्धि के दो प्रकाशित संस्करणों में मात्र प्रथम अध्याय में इतने अधिक पाठभेद क्यों और कैसे हो गये हैं ? स्वयं पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री ने अपने द्वारा सम्पादित - सर्वार्थसिद्धि में मात्र अपनी परम्परा से संगति बिठाने के लिये क्यों अनेक पाठ बिना किसी ठोस आधार पर बदल दिये हैं । इस संबंध में विस्तृत चर्चा आगे की है और उनके ही कथन को पाठकों के विचारार्थ प्रस्तुत किया है । भगवती आराधना के मूलपाठ और उसकी टीका में उल्लेखित मूल पाठ से अन्तर क्यों है ? प्राचीन स्तर के ग्रन्थों का साम्प्रदायिकता के । चश्में से मूल्यांकन करना भी उचित नहीं है तत्त्वार्थसूत्र और उसका भाष्य न तो श्वेताम्बर है और न दिगम्बर ही, उसकी स्थिति मथुरा के साधु-साध्वियों के अंकन के समान है, जिन्हें श्वेताम्बर या दिगम्बर नहीं कहा जा सकता है अथवा फिर दोनों ही कहा जा सकता है । वे श्वेताम्बर माने जा सकते हैं क्योंकि उनके पास वस्त्र और पात्र हैं, साथ ही उनके गण, शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर मान्य कल्पसूत्र की स्थविरावली के अनुसार हैं । वे दिगम्बर भी कहे जा सकते हैं, क्योंकि वे नग्न जिन - प्रतिमा की उपासना कर रहे हैं और स्वयं भी नग्न हैं । वे यापनीय भी कहे जा सकते हैं, क्योंकि अचेलता को मान्य करके भी अपवाद रूप में वस्त्र और पात्र ग्रहण कर रहे हैं (देखें - परिशिष्ट के चित्र ) । तत्त्वार्थसूत्र 'को श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय के चश्में देखना ही मूर्खता है, क्योंकि वह तो इनके विभाजन के पूर्व का है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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