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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : १९ प्रमाणित हो जाता है कि श्वेताम्बरमान्य पाठ मूल है और दिगम्बर परम्परा में मान्य पाठ उससे व्युत्पन्न हुआ है।"१ इन सूत्रगत मतभेदों के सन्दर्भ में आगे हमने अलग से भी चर्चा की है और यह पाया है कि भाष्यमान श्वेताम्बर पाठ ही मूल है और वह आगमों के अनुकूल भी है। यद्यपि वर्तमान आगमिक मान्यताओं से कुछ स्थलों पर जो क्वचित मतभेद दृष्टिगत होता है, वह इसलिए है कि एक तो आगमों में अनेक मान्यतायें संकलित हैं और दूसरे उमास्वाति के समक्ष वलभी वाचना के आगम न होकर फल्गुमित्र के काल के उच्चनागरी शाखा के आगम रहे होंगे। क्या तत्त्वार्थसूत्र का भाष्य-मान्य पाठ अप्रामाणिक और परवर्ती है___ यह सत्य है कि सिद्धसेन गणि और हरिभद्र सूरि और अन्य श्वेताम्बर आचार्यों ने तत्त्वार्थभाष्य-मान्य पाठ के आधार पर अपनी टीकाएँ लिखी और तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की रक्षा करने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्होंने उनके सूत्र में जो पाठ भेद और अर्थभेद हो गये थे, उनका भी उल्लेख किया है। यह सत्य है कि श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ के कुछ पाठभेद प्राचीन काल से ही प्रचलित रहे हैं, फिर भी उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं है। किन्तु इस आधार पर दिगम्बर परम्परा के विद्वान् यह तर्क उपस्थित करते हैं कि जब तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य एक ही व्यक्ति की कृति थी और श्वेताम्बर आचार्य इस तथ्य को भलीभाँति समझते थे, तब सूत्रपाठ के विषय में इतना पाठभेद क्यों हुआ? खासकर उस अवस्था में जबकि तत्त्वार्थभाष्य उस स्वीकृत पाठ को सुनिश्चित कर देता है। सूत्रपाठ में मात्र तोन पाठान्तरों के आधार पर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह कल्पना कर लेते हैं कि सूत्रपाठ और भाष्य मान्य पाठ के बीच पर्याप्त अन्तर है। पं० फलचन्द जी लिखते हैं कि "हम तो इस समस्त मतभेदों को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य-मान्य सूत्रपाठ स्वीकृत होने के पहले श्वेताम्बर परम्परा-मान्य सूत्रपाठ निश्चित करने के लिए छोटे-बड़े अनेक प्रयत्न हुए हैं, और वे प्रयत्न पीछे तक भी स्वीकृत होते रहे हैं।"२ यही नहीं इस आधार पर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य स्वोपज्ञ नहीं है और दोनों के १. वही, पृ० १०७ । २. सर्वार्थसिद्धि, सं० पं० फूलचंद जी, प्रस्तावना पृ० २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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