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१३४ : तत्त्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा
उनमें आर्य शिव ज्येष्ठ और आर्य कृष्ण कनिष्ठ हों या आर्य शिव आर्य कृष्ण के गुरु हों ।
इन आर्य शिव को उमास्वाति का प्रगुरु मानने पर उनका काल तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध से चौथी शताब्दी पूर्वार्ध तक माना जा सकता है । चौथी शताब्दी के पूर्वाधं तक के जो भी जैन शिलालेख उपलब्ध हैं, उनमें कहीं भी श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय ऐसा उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । वस्त्र, पात्र आदि के उपयोग को लेकर विक्रम संवत् की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध से विवाद प्रारंभ हो गया था, किन्तु स्पष्ट रूप से श्वेताम्बर, दिगम्बर या यापनीय परंपराओं के भेद स्थापित नहीं हुए थे 1 वि० सं० की छठीं शताब्दी के पूर्वाधं के अर्थात् ई० सन् ४७५ से ४९० के अभिलेखों में सर्वप्रथम श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ ( श्वेताम्बर ), निर्ग्रन्थमहाश्रमण संघ ( दिगम्बर ) और यापनीय संघ के उल्लेख मिलते हैं । प्रो० मधुसूदन ढाकी ने उमास्वाति का काल चतुर्थ शती निर्धारित किया है । यह उचित ही है । चाहे हम उमास्वाति का काल प्रथम से चतुर्थं शती के बीच कुछ भी माने किन्तु इतना निश्चित है कि वे संघ भेद के पूर्व के हैं । यदि हम उमास्वाति के प्रगुरु शिव का समीकरण आर्य शिव, जिनका उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में भी है और जो उत्तर भारत में वस्त्रपात्र संबंधी विवाद के जनक थे, से करते हैं तो समस्या का समाधान मिलने में सुविधा होती है । आर्य शिव वीर निर्वाण सं०६०९ अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी के पूर्वार्ध में उपस्थित थे । इस आधार पर उमास्वाति तीसरी के उत्तरार्ध और चौथी के पूर्वार्ध में हुए होंगे, ऐसा माना जा सकता है । यह भी संभव है कि वे इस परंपरा भेद में भी कौडिण्य और कोट्टवीर के साथ संघ से अलग न होकर मूलधारा से जुड़े रहे हो । फलतः उनकी विचारधारा में यापनीय ओर श्वेताम्बर दोनों ही परंपरा की मान्यताओं की उपस्थिति देखी जाती है । वस्त्र पात्र को लेकर वे वेताम्बरों और अन्य मान्यताओं के सन्दर्भ में यापनीयों के निकट रहे हैं ।
इस समस्त चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उमास्वाति का काल वि० सं० की तीसरी और चौथी शताब्दी के मध्य है और इस काल तक वस्त्र पात्र संबंधी विवादों के बावजूद भी श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीयों का अलग-अलग साम्प्रदायिक अस्तित्व नहीं बन पाया था । स्पष्ट सम्प्रदाय भेद, सैद्धान्तिक मान्यताओं का निर्धारण और श्वेताम्बर, 'दिगम्बर और यापनीय जैसे नामकरण पाँचवी शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आये हैं । उमास्वाति निश्चित ही स्पष्ट संप्रदाय भेद और साम्प्रदायिक
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