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________________ १३० : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा टीकाओं में सर्वप्रथम अकलंक तत्त्वार्थ राजवार्तिक में चौथे अध्याय के अन्त में सप्तभंगी का तथा ९वें अध्याय के प्रारम्भ में गुणस्थान सिद्धान्त का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हैं। तत्त्वार्थ की टीकाओं के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में श्वे. आगमों में समवायांग में जीव-ठाण के नाम से' यापनीय ग्रन्थ षट्खण्डागम में जीव समास के नाम से और दिगम्बर परम्परा में कुन्दकुन्द के ग्रन्थों गुणठाण के नाम से इस सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है। ये सभी ग्रन्थ लगभग पांचवीं शती के आसपास के हैं। इसलिए इतना तो निश्चित है कि तत्त्वार्थ की रचना चौथी पांचवीं शताब्दी के पूर्व की है। यह सही है कि ईसा दूसरी शताब्दी से वस्त्र-पात्र के प्रश्न पर विवाद प्रारम्भ हो गया फिर भी यह निश्चित है कि पाँचवीं शताब्दी में पूर्व श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे। निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बर), श्वेतपट महाश्रमणसंघ और यापनीय संघ का सर्व प्रथम उल्लेख हल्सी के पांचवीं शती के अभिलेखों में ही मिलता है। मूलसंघ का उल्लेख उससे कुछ पहले ई० सन् ३७० एवं ४२' का है" तत्त्वार्थ के मूलपाठों की कहीं दिगम्बर परम्परा से, कहीं श्वेताम्बर परम्परा से और कहीं यापनीय परम्परा से संगति होना और कहीं विसंगति होना यही सूचित करता है कि वह संघभेद के पूर्व की रचना है। मुझे जो संकेत सूत्र मिले हैं उससे ऐसा लगता है कि तत्त्वार्थ उस काल की रचना है जब श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय स्पष्ट रूप से विभाजित होकर अस्तित्व में नहीं आये थे। श्री कापड़िया जी ने तत्त्वार्थ को प्रथम शताब्दी के पश्चात् चौथी शताब्दी के पूर्व की रचना माना है। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में ऐसे भी अनेक तथ्य हैं जो न तो सर्वथा वर्तमान श्वेताम्वर परम्परा से और न ही दिगम्बर परम्परा से १. समवायांग ( सं० मधुकर मुनि ) १४/९५ २. षट्खण्डागम ( सत्प्ररूपणा ) १/१/५, ९-२२ ३. नियमसार गा० ७७ ( लखनऊ, अंग्रेजी अनुवाद सह) और समयसार गा ५५; उद्धृत गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास-प्रो० सागरमल ___ जैन, तुलसीप्रज्ञा खण्ड १८ अंक १, अप्रैल-जन ९२, पृ० १५-२९ ४. जैन शिलालेख संग्रह ( माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला ) भाग २, लेख क्रमांक ९८, ९९ ५. वही, लेख क्रमांक ९० एवं ९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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