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________________ १२६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा हुए है जिससे एक ओर बोटिक ( यापनीयों) का विकास हुआ, तो दूसरी ओर श्वेताम्बरों का। वे उस कोटिकगण और उच्चनागर शाखा में हुए हैं जिससे विभक्त होकर उत्तर भारतीय सचेल-अचेल परम्पराएँ विकसित हुई हैं । चाहे उमास्वाति को आगमों का अनुसरण करने वाली एवं अपवाद मार्ग में वस्त्र-पात्र की समर्थक परम्परा के होने के कारण और कल्पसूत्र को स्थविराली में उनकी उच्च नागरी शाखा का उल्लेख होने के कारण श्वेताम्बर कहा जा सकता है, किन्तु वे उस अर्थ में श्वेताम्बर नहीं हैं, जिस अर्थ में आज हम उन्हें श्वेताम्बर समझ रहे हैं। मात्र वे वर्तमान श्वेताम्बर परम्परा के पूर्वज हैं । पाटलिपुत्र में तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की रचना भी यही सिद्ध करती है कि वे उत्तर भारत के उस निर्ग्रन्थ संघ के सदस्य थे, जिसके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर और यापनीय दोनों ही हैं और इस दृष्टि से वे श्वेताम्बरों एवं यापनीयों के पूर्वज हैं। तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य में आगमों का अनुसरण तथा श्वेताम्बर और यापनीयों द्वारा मान्य अनेक अवधारणाओं की उपस्थिति यही सिद्ध करती है, कि आगमों की तरह श्वेताम्बर और यापनीयों को तत्त्वार्थसूत्र और उसका भाष्य भी उत्तराधिकार में प्राप्त हुए हैं और इसीलिए दोनों ही उसे अपनी परम्परा का कहें, तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए। हाँ इतना अवश्य है कि दिगम्बर परम्परा को तत्त्वार्थ सीधे उत्तराधिकार में नहीं मिला है। उसने उसे यापनीयों से प्राप्त किया है। सर्वार्थसिद्धि, राजवातिक तथा श्लोकवात्तिक पर तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है । भाष्य और दिगम्बर परम्परा में मान्य सर्वार्थसिद्धि की टीका में कितनी साम्यता है, इसे पं० नाथूरामजो प्रेमी ने स्पष्ट रूप से सिद्ध किया है और उन्होंने यह भी बतायाहै कि भाष्य की लेखन शैली प्रसन्न एवं गम्भीर होते हुए भी दार्शनिकता की दृष्टि से परिशोलित है। जैन साहित्य में दार्शनिक शैली के विकास के पश्चात् सर्वार्थसिद्धि लिखी गई है, ऐसा विकास भाष्य में नहीं दिखाई देता । भाष्य कम विकसित है। अर्थकी दष्टि से भी सर्वार्थसिद्धि (भाष्य की अपेक्षा) अर्वाचीन मालूम होती है। जो बात भाष्य में है, सर्वार्थसिद्धि में उसको विस्तृत करके और उस पर अधिक चर्चा करके निरूपण किया गया है। व्याकरण और जैनेतर दर्शनों की चर्चा भी उसमें अधिक है। जैन परिभाषाओं का जो विशदीकरण और वक्तव्य का पृथक्करण सवार्थसिद्धि में है, वह भाष्य में कम से कम है। भाष्य की अपेक्षा उसमें तार्किकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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