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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म और दर्शन का संस्कृत भाषा में सूत्र शैली में निबद्ध 'प्राचीनतम और सम्भवतः प्रथम ग्रन्थ है। जब विभिन्न दर्शनों में, अपने 'सिद्धान्तों के प्रतिपादन के लिए संक्षिप्त सूत्र शैली के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जाने लगे, तो उसी क्रम में जैन परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की रचना हुई। यह ग्रन्थ सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि की शैली में हो लिखा गया है । और उनसे प्रभावित तथा उनका समकालीन या किञ्चित् परवर्ती है यह ग्रन्थ १० अध्यायों में विभक्त है। इसका प्रारम्भिक सूत्र मोक्ष-मार्ग का प्रतिपादन करता है। इसके प्रथम अध्याय में पंचज्ञानों, चारनिक्षेपों और सप्त नयों का विवेचन है, द्वितीय अध्याय में जीव का तथा तृतीय और चतुर्थ अध्यायों में क्रमशः नरक और स्वर्ग का विवेचन है। पंचम अध्याय में षद्रव्यों का और विशेष रूप से पुद्गल का विवेचन है। षष्ठम एवं सप्तम अध्यायों में क्रमशः आश्रव एवं संवर की चर्चा है, जिसका मुख्य सम्बन्ध सदाचार और दुराचार से है । अष्टम अध्याय बन्ध की चर्चा के प्रसंग में जैन कर्म सिद्धान्त का और नवम अध्याय निर्जरा के रूप में तप, ध्यान आदि का विवेचन करता है। अन्त में दसवें अध्याय में मोक्ष की चर्चा है। इसका रचनाकाल लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी माना जाता है। इस प्रन्थ की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसे जैनधर्म के सभी सम्प्रदाय मान्य -करते हैं, यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य सूत्र-पाठ में क्वचित् अन्तर है । श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा के विद्वानों ने इसे अपनीअपनी परम्परा में रचित सिद्ध करने हेतु अनेक लेखादि लिखे हैं। मैंने उन सभी लेखों को, जिन्हें दोनों परम्पराओं के परम्परागत विद्वानों एवं कुछ तटस्थ विदेशी विद्वानों ने लिखा, देखने का प्रयास किया और उन सबको देखने के पश्चात् मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि तत्त्वार्थसूत्र उस युग की रचना है, जब जैन परम्परा में अनेक प्रश्नों पर सैद्धान्तिक और व्यावहारिक मतभेद उभरकर सामने आने लगे थे और जैन संघ विभिन्न गण, कुल और शाखाओं में विभक्त हो गया । किन्तु इन मतभेदों एवं गणभेदों के होते हुए भी तब तक जैन संघ श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय जैसे विभागों में विभाजित नहीं हुआ था। मेरी दृष्टि में तत्त्वार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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