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________________ १२० : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा के अन्तर्गत मरणविभक्ति एक प्राचीन प्रकीक है, इसकी ५७० से लेकर ६४० तक की ७१ गाथाओं में बारह भावनाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। मरणविभक्ति की भावना सम्बन्धी इन ७१ गाथाओं में भी अनेक भगवती-आराधना और मूलाचार में उपलब्ध होती हैं। अतः तत्त्वार्थ-भाष्य, भगवती-आराधना और मूलाचार में, जो साम्य परिलक्षित होता है, वह इन तीनों के कर्ताओं द्वारा का आगमिक ग्रन्थों के अनुसरण के कारण ही है। भगवती-आराधना और मूलाचार यापनीय ग्रन्थ हैं और यापनीय आगम मानते थे। मरणविभक्ति तत्त्वार्थ-भाष्य से प्राचीन है, वस्तुतः यापनीय और तत्त्वार्थ-भाष्य में जो समरूपता है, उसका कारण यह है कि उन दोनों का मूल स्रोत एक ही है। इसलिए दोनों की निकटता से यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि तत्त्वार्थभाष्य यापनीय है। भावनाओं की चर्चा के आधार पर उन्हें जिस प्रकार यापनीय सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार श्वेताम्बर भी सिद्ध किया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि वे इन दोनों सम्प्रदायों के पूर्वज हैं। ___पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इसके अतिरिक्त भाष्य का श्वेताम्बर सम्प्रदाय से किन बातों में विरोध आता है और जिसे भाष्य के वृत्तिकार सिद्धसेनगणि आगम विरोधी मानते हैं, इसकी चर्चा की है, इस सन्दर्भ में उन्होंने निम्न सात प्रश्न उपस्थित किये हैं जिन्हें हम अविकल रूप में नीचे प्रस्तुत कर रहे है १-अध्याय २, सूत्र १७ के भाष्य में उपकरण के दो भेद किये हैं, बाह्य और अभ्यन्तर । इसपर सिद्धसेन कहते हैं कि आगम में ये भेद नहीं मिलते । यह आचार्य का ही कहीं का सम्प्रदाय है । २-अध्याय ३, सूत्र के भाष्य में रत्नप्रभा के नारकीयों के शरीर की ऊँचाई ७ धनुष, ३ हाथ और ६ अंगुल बतलाई है। सिद्धसेन कहते है १. देखें-पइण्णयसुत्ताई-प्रथम भाग-सं० मुनि श्री पुण्यविजय जी, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई-मरणविभत्ति पइण्णयं-गाथा ५७०-६४० (पृ० १५१ से १५७ तक )। २. देखे--जैन साहित्य और इतिहास-पं० नाथूरामजी प्रेमी पृ० ५३७-५३८ ३. “आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येत्याचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्र दाय इति ।" ४. तिलोयपण्णत्ति में तत्त्वार्थ-भाष्य के ही समान अवगाहना बतलाई गई है सत्त-ति-छ-हत्थंगुलाणि कमसो हवंति धम्माए । अ० २, ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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