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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ११७ विशेष के साथ जुड़ी हुई हैं। जब एक समय में अनेक आचार्य हों तो उन, सभी का परम्परा विशेष को पट्टावलियों में उल्लेख नहीं होता है। प्रत्येक वर्ग अपनी-अपनो परम्परा के आचार्यों का उल्लेख करता है और दूसरों को छोड़ देता है। पुनः जिस आचार्य को पट्ट परम्परा दोर्घजीवी नहीं होतो, वे प्रायः विस्मृत कर दिये जाते हैं । आज अनेक ऐसे गण, कुल और शाखाओं के उल्लेख उपलब्ध हैं, जिनको आचार्य परम्परा के सम्बन्ध में हम कुछ भी नहीं जानते। उनके ग्रन्थों में उपलब्ध सुचनाओं के अतिरिक्त हम उनके सम्बन्ध में अज्ञान में होते हैं। उच्च नागरी शाखा को आचार्य परम्परा से सम्बन्धित विवरण भो उसी प्रकार लुप्त हो गये जैसे भद्रबाह से निकले गोदासगण और उसकी कोटिवर्षिया, ताम्रलिप्तिका, पोण्डूवर्धनिका आदि शा वाओं और उनमें हुए आवायौं के विवरण आज अनुपलब्ध या लुप्त हैं। साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों से हमें यह भो ज्ञात होता है कि उमास्वाति जिस उच्चनागरी शाखा में हुए हैं वह शाखा अधिक दीर्घजीवो नहीं रहीं। विक्रम की दूसरी शताब्दो से पांचवीं शताब्दो के बीच मात्र कुछ अभिलेखों और साहित्यिक सूचनाओं से हो इसके अस्तित्व का बोध होता है। कल्पसूत्र स्थविरावलि भो इसके संस्थापक शान्तिश्रेणिक के अलावा इस परम्परा के किसो आचार्य का उल्लेख नहीं करतो है।। ___ अतः श्वेताम्बर और दिगम्बर प्राचीन स्थविरावलियों में उमास्वाति का उल्लेख न होना केवल इस बात का सूचक है कि उनको उच्चनागरो शाखा और उसका वाचक वंश अधिक दोघजोवो नहीं रहा है और कालक्रम में तत्सम्बन्धी सामग्री लुप्त हो गई। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र को स्थविरावलियों में उमास्वाति का उल्लेव इसलिए नहीं हुआ कि ये स्थविरावलियाँ परवर्तीकाल में मुख्य रूप से कोटिकगण को वनो शाखा से सम्बन्धित रहो हैं । उसमें आर्य शान्तिश्रेगिक से निकलो कोटिकगण को उच्चनागरी शाखा के शान्ति श्रेणिक के आगे को आचार्य परम्परा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जबकि मथुरा के अभिलेखों में इस शाखा के अन्य आचार्यों के उल्लेख हैं । अतः श्वेताम्बर ओर दिगम्बर प्राचीन पट्टावलियों में उमास्वाति के उल्लेख का अभाव होने से और परवर्ती पट्टावलियों में उल्लेख होते हए भी एक वाक्यता का अभाव होने से हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि वे यापनीय परम्परा के थे । जब उन्होंने स्वयं ही अपनी उच्चनागरी शाखा का उल्लेख कर दिया है तो उसमें सन्देह करने को कोई आवश्यकता हो नहीं है। उनकी यह उच्चनागरो शाखा न तो श्वेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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