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________________ ११४ : तत्त्वार्थसूत्र और उनकी परम्परा हैं कि उनके रचयिताओं को उमास्वाति की गुरु परम्परा का नाम का और समय का कोई स्पष्ट ज्ञान नहीं था, इसलिए उनमें परस्पर मतभेद और गड़बड़ है । पूर्वोक्त शिलालेखों में कोई भी लेख शक संवत् १०३७. अर्थात् विक्रम संवत् ११७२ से पहले का नहीं है और गुर्वावली, पट्टावली तो शायद उनके भी बहुत बाद में बनी है । जिस समय टीका ग्रन्थों के द्वारा उमास्वाति दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य मान लिये गये और उनको कहीं न कहीं अपनी परम्परा में बिठा देना लाज़िमी हो गया, उस समय के बाद की ही उक्त पट्टावलियों, शिलालेखों आदि की सृष्टि है । विभिन्न समयों के लेखकों द्वारा लिखे जाने के कारण उनमें एकवाक्यता भी नहीं रह सकी।२ " दूसरे शब्दों में उमास्वाति का उल्लेख करने वाली दिगम्बर पट्टावलियों की प्रामाणिकता संदिग्ध है । 1 पं० नाथूराम जी प्रेमी ने उमास्वाति को यापनीय सिद्ध करने हेतु यह भी तर्क दिया है कि जिस तरह दिगम्बर परम्परा की प्राचीन पट्टावलियों में उमास्वाति का नाम नहीं है उसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की पट्टावलियों में भी उनका उल्लेख नहीं मिलता है । वे लिखते हैं कि "लगभग यही हालत श्वेताम्बर सम्प्रदाय की पट्टावलियों आदि की भी है । उनमें सबसे प्राचीन कल्पसूत्र स्थविरावली और नन्दिसूत्र स्थविरावलि हैं जो वीर निर्वाण संवत् ९८० अर्थात् विक्रम संवत् ५१० में संकलित की गई थी । उमास्वाति के विषय में इतना तो निश्चित है कि वे वि० सं० ५१० के पहले हो चुके हैं । फिर भी उनमें उमास्वाति का नाम नहीं है । नन्दिसूत्र में वाचनाचार्यों की भी सूची दी हुई है परन्तु उनमें भी उमास्वाति या उनके गुरु शिवश्री, भुण्डपाद, मूल आदि किसी भी वाचक का नाम नहीं है । नन्दिसूत्र की २६वीं गाथा में 'हरियमुत्तं साइं च वन्दे' ( हारितगोत्रं स्वाति च वन्दे ) पद हैं। चूँकि उमास्वाति के नाम का उत्तरार्ध 'स्वाति' है, इसलिए धर्मसागर जी ने स्वाति को ही उमास्वाति समझ लिया ओर यह नहीं सोचा कि तत्त्वार्थकर्ता उमास्वाति का गोत्र तो कौभीषण है और स्वाति का हारीत, इसके सिवाय दोनों के गुरु भी अलग-अलग हैं । पिछले समय की रची हुई, जो अनेक श्वेताम्बर पट्टावलियाँ हैं उनमें अवश्य उमास्वाति का नाम आता है, परन्तु एकवाक्यता का वहाँभी अभाव है । "" १. जैन साहित्य और इतिहास पं० नाथूराम जी प्रेमी पृ० ५३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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