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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसको परम्परा : १०१ में,' पद्मनन्दि पंचविंशतिमें और पं० राजमल्ल ने लाटी संहिता में उमास्वाति का अनुसरण करते हुए पाँच अणुव्रतों और सात शीलों का उल्लेख करते हैं और इस प्रकार कुन्दकुन्द और इन आचार्यों के वर्गीकरण में स्पष्ट अन्तर देखा जाता है। ये सभी आचार्य संलेखना को श्रावक व्रतों में समाहित नहीं करते हैं। जबकि कुन्दकुन्द दिग्व्रत और देशव्रत को एक मानकर संलेखना को बारह व्रतों में समाहित करते हैं। हरिवंश पुराण में तत्त्वार्थसूत्र का अनुसरण करते हुए दिग्व्रत और देशव्रत को अलगअलग माना गया है । यही स्थिति आदिपुराण की भी है उसमें भी दिग्व्रत और देशव्रत अलग-अलग माने गये हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा और [ ज्ञातव्य है कि सोमदेव ने भी उपभोग परिभोग को शिक्षावत में गिना है और उसे ११ वां स्थान दिया है। किन्तु अणुव्रतों में वे अचौर्य को दूसरा और सत्य को तीसरा अणुव्रत मानते हैं देखें--उपासकाध्ययन ७/२९९-४२४ ] १. अणुगुणशिक्षाद्यानि व्रतानि गृहमेधिनां निगद्यते । पंचत्रि चतुः संख्यासहितानि द्वादश प्राप्तः ॥ -अमितगति श्रावकाचार ६/२ [ ज्ञातव्य है कि अमितगति नाम एवं क्रम में पूर्णतः उमास्वाति का अनुसरण करते हैं उन्होंने भी दिक् और देश व्रत को गुणव्रत और उपभोग-परिभोग को 'शिक्षाव्रत माना है देखें-अमितगति श्रावकाचार ७६-९५ ] २. पद्मनन्दि-पञ्चविंशति : (जैन संस्कृति रक्षक संघ, शोलापुर ) ६/२४ [इसकी हिन्दी व्याख्या में श्वेताम्बर मान्य उपासकदशा के अनुरूप दिग्वत, अनर्थ दण्ड और भोगापभोग परिमाण को गुणव्रत में और देशावकाशिक ( देशवत ) को शिक्षाव्रत में माना है-यद्यपि यहाँ अनर्थदण्ड का क्रम ७ वाँ है जबकि उसमें आठवाँ है । ] ३. दिग्देशानर्थदण्डानां विरतिः स्याद्गुणव्रतम्-~६/१०९-११० साथ ही देखें ६/१५१ के नीचे उद्धृत सूत्र, (पृ० ११३ ) । ज्ञातव्य है पं० राजमल्ल ने व्रत विवेचन में उमास्वाति का अनुसरण किया है। ४. देखें-हरिवंश पुराण, जिनसेन (प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ) ५८/१३६ १८३ ५. स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३३०-३६८-[ ज्ञातव्य है कि इसमें अनर्थदण्ड को दूसरा और भोगोपभोग परिमाणवत को तीसरा गुणव्रत कहा गया है। साथ ही शिक्षाव्रतों में सामयिक को प्रथम, प्रोषधोपवास को द्वितीय, अतिथि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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