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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ९९ अब यदि यही क्रम भंग का आधार ग्रन्थ के श्वेताम्बरत्व और दिगम्बरत्व की कसौटी माना जाता है, तो प्रथम प्रश्न तो यही उठता है कि क्या तत्त्वार्थसत्र में श्रावक के द्वादश व्रतों का जिस रूप में व जिस क्रम से विवेचन है, वही दिगम्बर परम्परा में पाया जाता है। हमारे दिगम्बर परम्परा के विद्वानों ने इस बात को बड़े साहस के साथ प्रतिपादित किया है कि उमास्वाति कुन्दकुन्द के शिष्य हैं और तत्त्वार्थ की अवधारणाओं के मूल बीज श्वेताम्बर आगमों में नहीं, अपितु आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपस्थित है। यदि यही बात है तो श्रावक के व्रतों की उमास्वाति की प्रतिपादन शैली और कून्दकुन्द की प्रतिपादन शैली को जरा तुलना कर ली जाय । उमास्वाति जिन पाँच अणुव्रतों और सात उत्तरवतां को तत्त्वार्थसूत्र मूल और भाष्य में प्रस्तुत करते हैं, वे कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी उस रूप में नहीं मिलते हैं। ___ कुन्दकुन्द औपपातिक के समान ही श्रावक के बारह व्रतों का अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत में विभाजन करते हैं। जबकि तत्त्वार्थसत्र उपासकदशांग का अनुसरण करते हुए श्रावक के बारह व्रतों का अणुव्रत और व्रत ( उत्तरव्रत / शिक्षाव्रत ) के रूप में उल्लेख करता है। इससे यह ) भी फलित होता है कि कुन्दकुन्द उमास्वाति से परवर्ती हैं। वैसे कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय ( १/१४ ) में सप्तभंगी तथा गुणस्थान का उल्लेख होने से भी वे उमास्वाति की अपेक्षा परवर्ती ही सिद्ध होते हैं। जहां तक श्रावक के व्रतों की संख्या का प्रश्न है उमास्वाति और कुन्दकुन्द दोनों ही बारह की संख्या तो स्वीकार करते हैं किन्तु उनके नामों को लेकर महत्त्वपूर्ण अन्तर है। कुन्दकुन्द दिग्वत और देशव्रत दोनों को मिलाकर एक कर देते हैं और उनके स्थान पर बारह को संख्या की पूर्ति करने के लिए संलेखना को शिक्षाव्रत में जोड़ देते हैं । पुनः जहाँ कुन्दकुन्द अनर्थदण्ड १. देखें-तत्त्वार्थसूत्र के बीजों की खोज-पं० परमानन्द जैनशास्त्री, प्रकाशित 'अनेकांत' वर्ष ४ किरण १ पृ० १७-३७ २. पंचेवणुब्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि । सिक्खावयं चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥ थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य । परिहरो परमहिला परिग्गहारंभ परिमाणं ॥ दिसिविदिसिमाण पढम अणत्थदंडस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमाणं इयमेव गुणव्वया तिण्णि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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