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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ९८
षट्खण्डागम में सोलह की संख्या भी स्पष्ट रूप से दी गई है । तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में पन्द्रह नाम तो लगभग समान है, परन्तु उनमें भी एक नाम में तो स्पष्ट अन्तर है। तत्त्वार्थसूत्र में आचार्य भक्ति है जबकि षट्खण्डागम में उसके स्थान पर क्षगलवप्रतिबोधता है, यह नाम श्वेताम्बर आगमों में उपलब्ध हैं। अपराजितसूरि ने भगवतोआराधना की विजयोदया टीका में यद्यपि १६ अथवा २० की संख्या का निर्देश नहीं किया है। फिर भी दर्शन विशुद्धि आदि को तीर्थंकर नाम-कर्म बन्ध का कारण बताया है।
तत्त्वार्थसूत्र के भाष्यमान्य श्वेताम्बर मूल पाठ में भी इन्हीं सोलह कारणों का उल्लेख है, किन्तु स्वोपज्ञभाष्य में प्रवचन वात्सल्य के अन्तर्गत बाल, वृद्ध, तपस्वी, शैक्ष और ग्लान-इन पाँन के वात्सल्य का उल्लेख है, अतः प्रवचन-वात्सल्य के स्थान पर इन पाँचों को स्वतंत्र मानने पर संख्या बीस हो जाती है। यद्यपि नामों की दष्टि से तत्त्वार्थभाष्य के तीन नाम आवश्यकनियुक्ति से भिन्न होते हैं। इस प्रकार तीर्थंकर नाम कर्मबन्ध के कारणों के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थभाष्य का दृष्टिकोण श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं से क्वचित् भिन्न है। सिद्धसेनगणि के तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य की टोका में तीर्थंकर नामकर्म बन्ध के बीस कारणों को मानते हुए भी यह कहा है कि सत्रकार ने इनमें से कुछ का भाष्य में और कुछ का आदि शब्द से ग्रहण किया है (इति शब्द आदयर्थः) । इस प्रकार तीर्थंकर नामकर्म बंध के प्रश्न को लेकर जो विभिन्न मान्यताएँ हैं, तुलनात्मक दृष्टि से उनका विवरण इस प्रकार है
१.
दर्शनविशुद्धयादि परिणामविशेष तीर्थंकर त्वनामकर्मातिशयाः ।
-भगवतीमाराधना, गाथा ३१९ की टीका पृ० २८५
२. “अर्हच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बाल-बृद्ध-तपस्वि-शैक्षग्लानादिनां च संग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति"
-तत्त्वार्थभाष्य, ६/२३, ३. "विंशतः कारणानां सूत्रकारेण किंचित्सूत्रे किंचिद्भाष्ये किंचित् आदिग्रहणात् सिद्धपूजा-क्षणलवध्यानभावनाख्यमुपात्तम् उपयुज्य च प्रवक्त्रा व्याख्येयम् ।"
तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, ६।२३
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