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हमारी सभी चैतन्य - क्रियाओं का संचालन इस ग्रंथि - तंत्र द्वारा होता है । इन ग्रंथियों द्वारा प्रभावित क्षेत्र को चैतन्य - केन्द्रों की संज्ञा दी गई है।
क्रोध, कलह, ईर्ष्या, भय, द्वेष आदि के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित होती है- एड्रीनल ग्रंथि । जब ये अनिष्ट भावनाएं जागती हैं, तब एड्रीनल - ग्रंथि को अतिरिक्त काम करना पड़ता है और अन्य ग्रंथियां भी अति श्रम से थककर शिथिल हो जाती हैं, उनकी शक्ति क्षीण हो जाती है। परिणामस्वरूप, शारीरिक और मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, इसलिए यह आवश्यक है कि हम इन आवेगों और भावनाओं पर नियंत्रण करें। आवेगों को समझदारी से समेटें तथा ग्रंथियों पर अधिक भार न आने दें। इसका उपाय है— चैतन्य - केन्द्र - प्रेक्षा । ६. लेश्या - ध्यान
चेतना की भावधारा को लेश्या कहते हैं । लेश्या निरन्तर बदलती रहती है । लेश्या प्राणी के आभामण्डल का नियामक तत्त्व है। ओरा में कभी लाल, कभी नीला, कभी काला और कभी सफेद रंग उभर आता है । ओरा में भावों के अनुरूप रंग बदलते रहते हैं।
कषाय की तरंगें और कषाय की शुद्धि होने पर आने वाली चैतन्य की तरंगों को भाव के रूप में निर्माण करना और उन्हें विचार, कर्म और क्रिया तक पहुंचा देना- यह लेश्या का काम है। लेश्या ही सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर के बीच सम्पर्क सूत्र है ।
हमारे आवेश, आवेग, भाव या आदतें- इन सबको उत्पन्न करने वाला सशक्त तन्त्र है- लेश्या - तंत्र | क्रूरता, हिंसा, प्रवंचना, प्रमाद, आलस्य आदि जितने दोष हैं, वे सब लेश्याओं से उत्पन्न होते हैं ।
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ध्यान दर्पण / 125
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