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________________ चारित्रचक्रवर्ती भी नहीं दिखता है। संयमी को देखकर असंयमी समुदाय के मन में आदर का भाव नहीं जगता है। कारण उन असंयमी लोगों के आराध्य और वंदनीय लोग वे हैं जो भोग व विषय लम्पटता में (फिल्मी हस्तियों से) सर्वोपरि बन रहे हैं। इससे आदर्श सदाचार की बात चर्चा की वस्तु बन गई है। लोग यही कहने लगे हैं कि आचार में क्या धरा है, अपने विचार ठीक रखो, यही सार की बात है। आज शिथिलाचार में अपरिमित वृद्धि होने के कारण कौन सोच सकता था कि ऐसी भी कोई युगान्तर उत्पन्न करने वाली आत्मा होगी, जो इस पंचम काल में चतुर्थ कालीन महामुनि की उच्च तपस्या की स्मृति को साक्षात् रूप में दर्शन करायेगी। अविचलित शांति के सागर परिषह विजेता की कीर्ति फैलना पुद्गल के विकास का वैभव बताने वाले विज्ञान के चमत्कार पूर्ण इस युग में लगभग (सन् १९५३ से) ३० वर्ष पूर्व एक समाचार प्रकाश में आया था कि अपने आध्यात्मिक पवित्र जीवन से भव्यात्माओं के अंत:करण में अपरिमित आनंद की वर्षा करने वाली एक विलक्षण आत्मा दक्षिण प्रांत में दिगंबर जैन मुनिराज के रूप में विराजमान है। उनकी तपस्या सब को चकित करती है। वे मुनिराज किसी जंगल की गुफा में आत्मध्यान कर रह थे कि एक नागराज ने उन पर उपसर्ग किया। वह उनके शरीर से ऐसे लिपट गया, मानो वे सचमुच में संतापहारी, शान्तिदायी, सुवास संपन्न चंदन का वृक्ष ही हो । वे मुनिराज सद्गुणों से अलंकृत थे। शांति के सागर थे। इससे उनकी आत्मा सर्पराज के लिपटने पर चंदन के समान अचल रही आयी। दो तीन घंटे के बाद वह विषधर चला गया। ___ यह दृश्य काल्पनिक अथवा पौराणिक नहीं है। इसे अनेकानेक गृहस्थों ने अपने चर्म चक्षुओं से देखा था । मृत्यु के अत्यंत विश्वस्त प्रतिनिधि सर्पराज की अग्नि परीक्षा में पूर्णतया उत्तीर्ण होने वाले, अविचलित धर्मधारी उन शांति के सागर महामुनि की कीर्ति और महिमा को साधर्मी समुदाय ने अवर्णनीय आनन्द, प्रेम, भक्ति तथा ममता पूर्वक सुनी। लोग चकित हो उठे। प्रत्येक सहृदय, इस भीषण पंचम काल में चतुर्थ कालीन दृश्य को नयन गोचर बनाने वाले, उन तपोनिधि की मनोमन्दिर में पूजा करने लगा। चित्र-दर्शन ____ जब उन निर्ग्रन्थ गुरुदेव का वीतरागतापूर्ण दिगंबर मुद्रा मय चित्र प्रकाश में आया, तब सभी मानव अपने-अपने धर्म या सम्प्रदाय का मोह भुला, उन श्रमणराज को बड़ी ममता से प्रणाम करने लगे। उनकी मुद्रा में अपार शांति थी। उनके रोम-रोम में वीतरागता का रस छलकता सा लगता था। वे सर्वपरिग्रह मुक्त, पूर्णतया स्वावलम्बी बन, परिग्रह के पीछे पागल बनने वाले जनसमदाय को अमर जीवन और सच्चे कल्याण का पथ बताते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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