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आज महासभा के अध्यक्ष हुए मुझे २५ साल हो गये। इन २५ वर्षों में कि कोई उत्तम कार्य मुझसे हुआ है या नह समझता हूँ कि महासभा के अध्यक्ष प रहते हुए मेरे द्वारा लिये गये निर्णयों। 'उत्तमोत्तम निर्णय है, तो वह यह चारि प्रकाशन का।
इस चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ ने ही से बचा लिया, वर्ना १८ सितम्बर १६५ मायनों में अनाथ हो गये थे। वैस आच अभाव में आचार्य महाराज के अभाव को 'परम्परा में आचार्य वीरसागर शिवसागरजी, आचार्य धर्मसागर अजितसागरजी , आचार्य वर्धमानसाग श्रेयाँस सागरजी. आचार्य अभिनदन प्रकार उप-परम्परा में आचार्य देशभूषप विद्यानंदजी, आचार्य बाहुबलि सागरज उप-उपरंपरा में आचार्य ज्ञानसाग विद्यासागरजी, इसी प्रकार अन्य परम्प महावीरकीर्तिजी, आचार्य विमलसाग 'सन्मतिसागरजी व समकालीन आचा 'शांतिसागरजी (छानी) व उनकी परंपरा ने कभी अनुभव ही नहीं होने दिया, किंवा सदभाव के अहसास को बनाये रखना प्रशिष्य के लिए भी असंभव कार्य था, क्य को वे भी अनुभव करते था
इसी असंभव कार्य को सं चारित्र चक्रवर्ती ने। मेरे लिए चारित्र चक्र आचार्य शांतिसागरजी हैं, उससे किंचि मात्र मेरे लिये ही नहीं, अपितु संसार के ज्ञान, चारित्र के धारकों व उनके आराध
- आदरणीय लेखक पं. सुमेरुण 'का उनके इस कृत्य के लिये मैं हृदय करता हूँ। मात्र उन्हीं का नहीं, अपितुप प्रकाशकों, लेखकों व अन्यों का पं. सुमेरुचंद्रजी को उनकी इस कृति। 'लिये प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निमित्त ब
_मेरे अभिवादन स्वीकार कप 'आत्मायें मुझे अनुग्रहित करें।
- निर्म
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