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________________ ५८० ध्यानोपवासदक्षश्च तपस्वी नमिसागरः । चत्वारो मुनयश्चैते दीक्षिता तत्र सूरिणा ॥२१॥ अर्थ-धर्ममूर्ति और प्रभावशाली योगिराज चन्द्रसागर दीक्षित हुए, दया की मूर्ति और सबसे विचक्षण श्रीपार्श्वसागर मुनि दीक्षित हुए। चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति की रचना करनेवाला प्रसन्न चित्त को धारण करनेवाला और इस चरित्र को बनानेवाला तीसरा मैं कुंथुसागर हूँ तथा ध्यान उपवास में अत्यंत चतुर ऐसे नेमिसागर चौथे मुनि दीक्षित हुए हैं। इस प्रकार उस सोनागिर पर्वत पर आचार्य महाराज ने चार एल्लकों को जैनेश्वरी दीक्षा देकर मुनि बनाया था। क्षुल्लकोऽजितकीर्तिश्च विरक्तस्तत्र दीक्षितः । मुनयः क्षुल्लकाः सर्वे वीतरागः दयालवः ॥२२॥ अर्थ- विरक्त हुए, क्षुल्लक अजितकीर्ति भी वहीं पर दीक्षित हुए थे। इस प्रकार दीक्षित हुए वे सब मुनि और क्षुल्लक वीतराग थे तथा दयालु थे। ततो चलत्समित्या हि धर्ममुद्योतयन् पथि । ग्रामं पुरं समुल्लंघ्य मथुरायां समागतः ॥२३॥ श्रीजम्बुस्वामिनं नत्वा सिद्धभूमिं सुसिद्धिदाम्। तत्क्षेत्रं परमं रम्यं ध्यानयोग्यं निरीक्ष्य च ॥२४॥ वर्षायोगो धृतस्तत्र जगत्पूज्येन योगिना । कदाचोपवने ध्यानं कदाचिजिनमन्दिरे ॥२५॥ प्रभुपार्धे श्मशाने च कदाचिन्नगरे वरे । एवं ध्यानंसदा कुर्वन् वर्षायोगव्यतीतवान् ॥२६॥ अर्थ-वे आचार्य समिति पूर्वक वहां से भी चले और मार्ग में धर्म का उद्योत करते हुए, नगर तथा गांवों को उल्लंघन किया और मथुरानगर में आये। वहाँ पर उन्होंने जम्बू स्वामी को नमस्कार किया और सब सिद्धियों को देनेवाली सिद्धभूमि को नमस्कार किया। तदनंतर उस क्षेत्र को परम मनोहर और ध्यान के योग्य देखकर उन जगत् पूज्य योगिराज ने वहीं पर वर्षायोग धारण किया। वे आचार्य कभी बाग में ध्यान करते थे, कभी जिनमंदिर में ध्यान करते थे, कभी भगवान् के समीप में ध्यान करते थे, कभी श्मशान में ध्यान करते थे और कभी श्रेष्ठ नगर में ध्यान करते थे। इस प्रकार सदा ध्यान करते हुए उन्होंने वर्षायोग पूर्ण किया। तदा द्वौ दीक्षितौ साधु गुरुवर्येण शान्तिदौ। वर्णयामि तयो म पापहारि यथाक्रमम् ॥२७॥ प्रथमश्च दयामूर्तिरादिसागरनामकः । मम विद्यागुरुर्धारः सुधर्मसागरोऽपरः ॥२८॥ मनोहरः सुबुद्धिश्चाविद्याया ध्वंसकारकः । तद्भातरोपि विद्वांसः सरस्वत्याः सुतोपमाः ॥२६॥ अर्थ- (वीरनिर्वाण संवत् चौबीससौ साठ के फाल्गुन शुक्ल पक्ष में सेठ घासीलाल ने अपने प्रतापगढ़ नगर में बड़े शुभभावों से प्रतिष्ठा कराई थी।) प्रतापगढ़ में उस समय आचार्यशांतिसागर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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