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________________ ५७३ श्रमण संस्कृति के द्योतक ४२ बिंदु.... (३८) जैन धर्म की प्रचीनता की सिद्धि करता हिंदुओं की मान्यताओं के विपरित मान्यता वाले जैन देवताओं का हिंदु ग्रंथों में प्रकरण की अपेक्षा :योग वशिष्ट रामायण के वैराग्यप्रकरण, अध्याय१५, श्लोक ८ में लिखा है कि नाहम् रामो न मे वांछा भावेषु न च मे मनः। शान्ति मासितुमिच्छामि स्वात्मनीव जिनो यथा॥ अर्थात् भगवान् रामचन्द्र ने इसमें जिनेन्द्र भगवान् के सदृश शांत प्रकृति होने की भावना प्रगट की है। हिंदु संस्कृति में परमात्मा के विशेषण अथवा पर्यायवाची रूप में अव्याख्यायित/अप्रचलित जिन शब्द, जो कि मुख्यतया जैनियों के ही यहाँ प्रयुक्त होता है, का प्रयोग सिद्ध करता है कि रामचंद्रजी के काल के पूर्व जैन धर्म अस्तित्व में था। जिन शब्द की मेदिनीकोश से सिद्धि : (३६) शब्दकोशिय व्युत्पत्ति की अपेक्षा :- मेदिनीकोश में जिन शब्द का अर्थ 'बृहत् जैनधर्म के आदि प्रचारक' ऐसा किया है। हनुमन्नाटक, गणेशपुराणादि ग्रंथों में अर्हत् शब्द का व्यवहार देखा जाता है, जो कि जैनियों के अर्हन् शब्द से उत्पन्न हुआ है। (४०) चूँकि जैन ऋषियों का हिंदु ग्रंथों में किया गया स्मरण भी जैन धर्म की प्राचीनता की सिद्धि करता है, अतः उसकी अपेक्षा :- रामायण बालकांड, सर्ग १४, श्लोक २२ में राजा दशरथ ने श्रमणगणों का अतिथि सत्कार किया, यह बात लिखी है-'तापसा भुंजते चापि श्रमणा भुंजते तथा'। भूषण टीका में श्रमण शब्द का अर्थ दिगम्बर किया है-'श्रमणा दिगम्बराः, श्रमणा वातवसना इति निघण्टुः'। (४१) भारतीय संस्कृति के सर्वमान्य व्याख्याता वरदाकान्त मुख्योपाध्याय की अपेक्षा :- वरदाकान्त मुख्योपाध्याय, एम्.ए. प्रसिद्ध विद्वान् लिखते हैं कि लोगों का वह भ्रमपूर्ण विश्वास है कि पार्श्वनाथ जैनधर्म के संस्थापक थे, किन्तु इसका प्रथम प्रचार वृषभदेव ने किया था। इसकी पुष्टि में प्रमाणों का अभाव नहीं है। (४२) महान इतिहासज्ञ डॉ. ए. गिरनोट(फ्रेन्च विद्वान) की अपेक्षा :डॉ. ए. गिरनोट नामक फ्रेंच विद्वान् लिखते हैं कि Concerning the antiquity of jainism comparatively to Budhism the former is truly moe ancient than the later there is very great ethical value in jainism for mens improvement and systiomatical doctrine.अर्थात् जैनधर्म और बौद्धधर्म की प्राचीनता के संबंध में मुकाबला करने पर जैनधर्म बौद्धधर्म से वास्तव में बहुत प्राचीन है। मानव समाज की उन्नति के लिये जैनधर्म में सदाचार का बड़ा मूल्य है। जैनधर्म एक मौलिक, स्वतंत्र और नियमित सिद्धान्त है। ******** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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