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चारित्र चक्रवर्ती ___ उन्होंने आचार्य महाराज को साष्टांग प्रणाम किया और कहा- “ऐसे सद्गुरु का मुझे अपने जीवन में प्रथम बार दर्शन हुआ। ऐसे महापुरुष को ही अपना गुरु बनाना चाहिये।"
उनके सभी शिष्यों ने महाराज को प्रणाम किया।
हजारों व्यक्तियों के मुख से जैन गुरु के गौरव और स्तुति के वाक्य निकलते थे। उस समय बड़ी प्रभावना हुई थी। लाखों लोग कहते थे,सच्चा साधुपना तो शान्तिसागर महाराज में है। ___महाराज ने सन् १९२५ में श्रवणबेलगोला की यात्रा की थी। उस यात्रा से लौटते समय आचार्य संघ दावणगिरि में ठहरा था। बहुत-से अन्य धर्मी गुरुभक्त महाराज के पास रस, दूध, मलाई आदि भेंट लेकर पहुंचे। रात्रि का समय था। चन्द्रसागरजी ने लोगों से कहा कि महाराज रात्रि को कुछ नहीं लेते हैं। वे लोग बोले-“महाराज गुरु हैं। जो भक्तों की इच्छा पूर्ण नहीं करते, वे गुरु कैसे ?"महाराज तो मौन थे। वे भद्रपरिणामी भक्त रात्रि को ढोलक आदि बजाकर भजन तथा गुरु का गुणगान करते रहे। उपयोगी उपदेश
दिन निकलने पर महाराज का विहार हो गया। वे लोग महाराज के पीछे-पीछे गए। उन्होंने प्रार्थना की-“स्वामीजी ! कम से कम हम लोगों को कुछ उपदेश तो दीजिए।" उनका अपार प्रेम तथा उनकी योग्यता आदि को दृष्टि में रखकर महाराज ने उन लोगों के द्वारा गाये गए भजन के उनके परिचित कुछ शब्दों का उल्लेख कर कहा-“इन शब्दों के अर्थ का मननपूर्वक आचरण करो और अधिक से अधिक जीवदया का पालन करो, तुम्हारा कल्याण होगा।"इस प्रिय वाणी को सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए। महाराज में यह विशेषता थी कि वे समय, परिस्थिति, पात्र, आदि का विचार कर समयोचित तथा हितकारी बात कहते थे। सद्भावनापूर्ण भेंट
उन भक्तों का मन महाराज के चरणों में इस प्रकार आसक्त हो गया था, जिस प्रकार कि मधुकर कमल के प्रति अपार अनुराग धारण करता है। महाराज लगभग दस मील पहुँचे होंगे कि वे भक्त एक गाड़ी में घृत, धान्य आदि सामग्री लेकर संघ के सत्कार की सद्भावना से प्रेरित हो वहाँ पहुँचे।
महाराज ने संघपति से कहा-“इन लोगों की प्रेमपूर्णभेंट तुम्हें स्वीकार करना चाहिए।"
उनकी स्नेहपूर्ण भेंट प्रेमभाव से स्वीकार की गई। सुमधुर भोजन द्वारा उन गुरुभक्तों को परितृप्त भी किया गया। महाराज का व्यवहार अन्य सम्प्रदाय वालों के साथ भी इतना मधुर होता था कि वे इनके चरणों के प्रेमी बन जाते थे।
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