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चारित्र चक्रवर्ती था, इससे संसार में फंसाने वाले आरंभ की ओर हमारा चित्त नहीं लगता था।" रामू (कुंथुसागरजी) के साथ शर्त
“चातुर्मास के पश्चात् महाराज को हमने और रामू ने शेडवाल पर्यन्त पहुंचाया। उस समय शेडवाल में दिगम्बर जैन महासभा का उत्सव होने वाला था। मैंने और रामू ने एक दूसरे के हाथ पर हाथ मारकर यह शर्त की थी कि छह माह के भीतर अवश्य दीक्षा लेंगे।" ___ मैंने नेमिसागर महाराज से पछा-“आचार्य महाराज की ऐसी कौन-सी बात थी, जिससे आपका मन, ममता के एकमात्र केन्द्र गृह तथा परिवार के परित्याग के लिए तैयार हो गया? साधु का जीवन पुष्प-शय्या नहीं है। यह कठिन तपस्या परिपूर्ण है।" आचार्य महाराज की वाणी
नेमिसागर महाराज ने बताया-“उस समय आचार्य महाराज ने निर्ग्रन्थ दीक्षा नहीं ली थी। वे क्षुल्लक थे। मैं और बंडू उनके पास तेरदल में रहे थे। बन्डू शास्त्र पढ़ता था। मैं सुनता था। भगवती आराधना, तत्त्वार्थसार आदि ग्रंथों का स्वाध्याय हो चुका था।" गजस्नान
तेरदल से विहार कर महाराज कुड़ची ग्राम में आए। उनका आहार हमारे घर में हुआ। आहार के उपरान्त वे बोले-“तुम्हारी भक्ति, पूजा, अर्चा आदि कार्य गज के स्नानतुल्य है। देखो! पूजा आदि सत्कार्यों के द्वारा तुमने निर्मलता प्राप्त की। यह तो स्नान हुआ। इसके पश्चात् तुमने आरंभ के कार्यों में पड़कर पाप का संचय किया। इसके द्वारा तुमने अपने ऊपर फिर से मिट्टी डाल दी। ऐसा गृहस्थ का जीवन होता है।" यथार्थ में गृहस्थ की अवस्था में सावधानी रखते हुए भी प्रमाद होता है, इसी कारण सर्वपरिग्रहत्यागी दिगम्बर अवस्थाधारी मुनि पदवी प्राप्त किए बिना सच्चे सुख का लाभ असंभव कहा गया है। सर्वप्रथम ऐलक शिष्य
नेमिसागर महाराज ने बताया-“आचार्य महाराज जब गोकाक पहुंचे तब वहाँ मैंने और पायसागर ने एक साथ ऐलक दीक्षा महाराज से ली थी। उस समय आचार्य महाराज ने मेरे मस्तक पर पहले बीजाक्षर लिखे थे। मेरे पश्चात् पायसागर के दीक्षा के संस्कार हुए थे।" समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा
“दीक्षा के दस माह बाद मैंने समडोली में निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी। वहाँ आचार्य महाराज ने पहले वीरसागर के मस्तक पर बीजाक्षर लिखे थे, पश्चात् मेरे मस्तक पर लिखे
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