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________________ पावन समृति मुस्लिम भक्त नसलापुर में एक मुसलमान था । वह महाराज के दर्शन के पश्चात् ही शुद्ध भोजन करता था । उस भक्त की बहुत उन्नति हुई । वहाँ एक दर्जी भी था, जो द्वेष भाव धारण करता था। एक वर्ष में ही उसका बहुत पतन हुआ। ऐसी ही अनेक स्थानों की बातें सुनी जाती हैं। ४५२ वास्तव में प्रशममूर्ति आचार्यश्री महान् आध्यात्मिक विभूति थे । उपनिषद् में जिसे पराविद्या कहा है, उसके ये वास्तव में आचार्य थे । यथार्थ में वे इस भौतिकवाद के युग में लोकोत्तर महा मानव थे । वीरसागरजी को आचार्य पद का दान ता. २६ शुक्रवार को आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को आचार्य पद प्रदान किया। उसका प्रारूप आचार्यश्री के भावानुसार मैंने लिखा था । भट्टारक लक्ष्मीसेन जी, कोल्हापुर आदि के परामर्शानुसार उसमें यथोचित परिवर्तन हुआ । अन्त में पुन: आचार्य महाराज को बाँचकर सुनाया, तब उन्होंने कुछ मार्मिक संशोधन कराए। उनका एक वाक्य बड़ा विचारपूर्ण था - "हम स्वयं के संतोष से अपने प्रथम निर्ग्रन्थ शिष्य वीरसागर को आचार्य पद देते हैं।" मुनि वीरसागरजी को संदेश आचार्य महाराज ने वीरसागर महाराज को यह महत्वपूर्ण संदेश भेजा था - " आगम के अनुसार प्रवृत्ति करना, हमारी ही तरह समाधि धारण करना और सुयोग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना, जिससे परम्परा बराबर चले । " Jain Education International उन्होंने यह भी कहा था, "वीरसागर बहुत दूर है, यहाँ नहीं आ सकता अन्यथा यहाँ बुलाकर आचार्य पद देते ।" उनके ये शब्द महत्त्व के थे, वीरसागर को हमारा आशीर्वाद कहना और कहना कि शांतभाव रखे, शोक करने की जरूरत नहीं है ।" - पृष्ठ ३६०-३६१, सल्लेखना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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