SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 543
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पावन समृति ४२६ होती थी । महाराज बोलते कम थे, किन्तु जो शब्द निकलते थे, नपे-तुले रहा करते थे । एक दिन कुलगिरि की धर्मशाला में एक जगह ब्र. भरमप्पा सीमेंट लगाने में तन्मय थे । एक व्यक्ति बोला, “महाराज ! भरमप्पा गौडी - कारीगर है।" दूसरा कहने लगा - " महाराज को अच्छा न लगेगा, ऐसी बात मत कहो।" वीडकरजी ने कहा"महाराज ! आपके सत्संग से भरमप्पा आत्ममंदिर की इमारत बनाने का उद्योग कर रहा है। इससे वह कारीगर तो है ही ।" महाराज हँस पड़े। वास्तव में महाराज ने ब्र. जी को क्षुल्लक दीक्षा देकर अन्त में आत्मभवन का शिल्पी बना दिया था । क्षुल्लक होने के बाद ऐलक होकर उनका १९६६ के लगभग स्वर्गारोहण हो गया। गुरूदेव की कृपा कुन्थलगिरि में १६५५ में सल्लेखना धारण करने के कुछ दिन पूर्व पूज्यश्री ने हमारी याद की थी और लोगों से कहा था- " ज्या ठिकाणीं आमचा चातुर्मास होतो, त्या ठिकाण चा एक ही भाद्रपद चुकत नाहींत. ( जिस स्थान पर हमारा चातुर्मास होता है, वहाँ के एक भी भाद्रमास में आने में यह नहीं चूका है।)” उनका विश्वास था कि मैं भाद्रपद में उनके समीप ही पर्यूषण व्यतीत करूँगा, किन्तु पर्यूषण के तीन दिन पूर्व भादों सुदी द्वितीया को ही वे महर्षि स्वर्गीय निधि बन गए। सबका सौभाग्यसूर्य अस्तंगत हो गया। र्णोद्वार की प्रशंसा एक धार्मिक व्यक्ति ने पाँच मन्दिरों का जीर्णोद्वार कराया था। उसके बारे में आचार्यश्री कहने लगे - " जिन मन्दिर का काम करके इसने अगले भव के लिए अपना सुन्दर भवन अभी से बना लिया है । " बन्ध तथा मुक्ति आचार्यश्री किसी विषय को स्पष्ट करने के लिए बड़े सुन्दर दृष्टांत देते थे। एक समय वे कहने लगे- "यह जीव अपने हाथ से संकटमय संसार का निर्माण करता है। यदि यह समझदारी से काम लें तो उस संसार को शीघ्र समाप्त भी स्वयं कर सकता है। " उन्होंने कहा - " एक बार चार मित्र देशाटन को निकले। रात्रि का समय जंगल में व्यतीत करना पड़ा । प्रत्येक व्यक्ति को तीन-तीन घंटे पहरे देने को बाँट दिये गये । प्रारम्भ तीन घंटे उसके भाग में आए, जो बढ़ई का काम करने में प्रवीण था । समय व्यतीत करने को बढ़ई ने लकड़ी का टुकड़ा काटा और एक शेर की मूर्ति बना दी। दूसरा व्यक्ति चित्रकला में निपुण था । उसने उस मूर्ति को सुन्दरतापूर्वक रंग दिया, जिससे वह असली. शेर सरीखा जँचने लगा। तीसरा साथी मंत्रवेत्ता था । उसने उस शेर में मंत्र द्वारा प्राणसंचार का उद्योग किया। शेर के शरीर में हलन चलन होते देख मांत्रिक झाड़ पर चढ़ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy