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सल्लेखना
४१० उन्होंने अधिक उपवास शुरु कर दिये थे। श्रावण वदी प्रथमा से उन्होंने अवमौदर्य तप का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया था। महाराज ने एक ग्रास पर्यन्त आहार को घटा दिया था। वे कहने लगे-“यदि प्रतिदिन दो ग्रास भी आहर लें तो यह शरीर बहुत दिन चलेगा। यदि केवल दूध लेंगे तो यह शरीर वर्षों टिकेगा।" सल्लेखना का मूल कारण
जब प्राणी संयम नहीं पल सकता है, तब इस शरीर के रक्षण द्वारा असंयम का पोषण क्यों किया जाय ? जिस अहिंसा महाव्रत की प्रतिज्ञा ली थी, उसको दूषित क्यों किया जाय ? व्रतभ्रष्ट होकर जीना मृत्यु से भी बुरा है। व्रत रक्षण करते हुए मृत्यु का स्वागत परम उज्ज्वल जीवनतुल्य है इस धारणा ने, इस पुण्यभावना ने, उन साधुराज को यमसमाधि की ओर उत्साहित किया था। सप्ततत्त्व निरूपण का रहस्य
एक बार आचार्य से यह प्रश्न पूछा गया था-"भेद विज्ञान हो तो सम्यक्त्व है; अत: आत्मतत्त्व का ही विवेचन करना आचार्यों का कर्तव्य था, परन्तु अजीव, आश्रव बंधादि का विवेचन क्यों किया जाता है ?
उत्तर-“ रेत की राशि में किसी का मोती गिर गया। वह रेत के प्रत्येक कण को देखता फिरता है। समस्त बालुका का शोधन उसके लिये आवश्यक है; इसी प्रकार
आत्मा का सम्यक्त्व रूप रत्न खो गया है। उसके अन्वेषण के लिए, अजीव, आश्रव, बंधादि का परिज्ञान आवश्यक है। इस कारण सप्ततत्त्वों का निरूपण सम्यक्त्वी के लिए हितकारी है।" आत्मा की प्राप्ति होने के बाद उसे अपने स्वरूप में रहना है, फिर बाहर भटकना प्रयोजन रहित है। आत्मा का ध्यान
प्रश्न- आप प्राय: कहा करते हैं, “आत्मा का ध्यान करो", किन्तु यह कार्य बड़ा कठिन प्रतीत होता है। मैं शुद्ध, बुद्ध, ज्ञायक स्वभाव, टंकोत्कीर्ण रूप हूँ; यह कथन बारबार कहते-कहते शुकवाणीवत् बन जाता है। अत: कैसे आत्मा का ध्यान किया
जाय ?
उत्तर-“शरीर प्रमाण आत्मा है। उसके बाहर सद्भाव ज्ञात नहीं होता है। संपूर्ण देह में आत्मा है। उसका चिंतन करो। आत्मा को बाहर मत भटकने दो। भीतर चिंतन करने से बाहर का विकल्प दूर हो जायेगा। आत्मा का प्रशान्त चिंतन थोड़े समय तक ही हो पाता है। प्रारम्भ में बाहर के पदार्थों का पता कुछ-कुछ चलता है, शब्दादि का बोध नहीं होता है; किन्तु पश्चात् तोप के छूटने पर भी उसका पता नहीं चलता है।" यह आचार्यश्री का
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