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________________ ४०५ चारित्र चक्रवर्ती उत्पत्ति हुई थी। तैजसकार्माण तो सदा साथ में रहते ही हैं। इस जिनेन्द्र पूजा के पश्चात् वे अपने प्रसाद में पहुँचकर सिंहासन पर शोभायमान हुए होंगे। सम्भव है कि वे शीघ्र ही देव पद प्राप्ति के उपरांत पूर्व संस्कारों की प्रेरणा से विदेह क्षेत्र में गए होंगे और वहाँ देवों के कोठों में बैठकर देवाधिदेव सीमंधर भगवान् के समवशरण में उन्होंने दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य प्राप्त किया होगा। अब वेधर्मवृक्ष के अमृत तुल्य मधुर फलों का रसास्वादन कर रहे हैं। हमारी भौतिक दृष्टि से आचार्य महाराज नहीं है, उनका शरीर अग्नि में भस्म हो गया था; किन्तु आगम के प्रकाश से विदित होता है कि उनकी आत्मा अमर लोक में है और आगे वे तपश्चर्या द्वारा जरा मरणोज्झित' सिद्ध भगवान् बनेंगे। उस समय वे सच्चे अमर बनेंगे। स्वर्ग का आनन्द __ आचार्यश्री पहले लोगों को व्रत प्रदान करते समय कभी-कभी कहतेथे “इससे तुमको स्वर्ग में महान् आनन्द मिलेगा। सभी इन्द्रियों को सुखप्रद सामग्री स्वर्ग में मिलती है।" वह अब दिव्यलोक में उनके अनुभव गोचर होगई। पूज्यपादस्वामीनेस्वर्गकेसुख को अनुपम कहते हुए बताया है कि 'अनातकम् आतंकरहित है और दीर्घकालोपलालितम्'-सुदीर्घकालपर्यन्त प्राप्त होता है। सागरों पर्यन्त सुख की धारा चली जाती है। स्वर्ग प्राप्त करने वाले जीव को दुषमा काल के शेष साढ़े अठारह वर्ष तथा दुषमा-दुषमा काल के २१ हजार वर्ष पर्यन्त कष्टों को नहीं भोगना पड़ेगा। उत्सर्पिणी केभी प्रथम द्वितीय कालों की व्यथाओंसे बचेरहते हैं। दुषमा सुषमा नाम के उत्सर्पिणी के तीसरे काल में जन्म धारण करके वे निर्वाण को प्राप्त कर सकते हैं। कारण, उस काल में वज्रवृषभनाराचसंहनन की प्राप्ति हो जाती है। अवसर्पिणी का चौथा और उत्सर्पिणी का तीसरा काल समान रहते हैं। विदेह में तो सदा चौथा काल रहता है। लौकान्तिक लौकान्तिक देवों की आयु आठ सागर प्रमाण होती है। उनकी ऊँचाई पंचहस्त प्रमाण कही गई है। उनकी शुक्ललेश्या होती है। इनकी संख्या सब मिलाकर चार लाख सात हजार आठ सौ छ: (४,०७,८०६) है। इनका जीवन अलौकिक रहता है। ये देवांगनाओं के संपर्क से रहित अपूर्व आनन्द का रसास्वादन करते हैं। ग्यारह अंङ्ग तथा चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता होते हैं। स्वर्ग के वैभव में भी इनकी ज्ञान-ज्योति बराबर प्रकाश देती रहती है। इससे ये अपने दिव्य सुखों को अनित्य ही जानते हैं, मानते हैं, अनुभव करते हैं। धर्म के सिवाय अन्य शरण नहीं है, ऐसी अशरण भावना को भी सदा स्मरण करते हैं। विरक्त स्वभाव के कारण ही इनका मन जिनेन्द्र के रागवर्धक गर्भ तथा जन्मकल्याणकों में भाग लेने को उत्साहित नहीं होता । जिनेन्द्र के मन में वैराग्य का वसन्त आते समय वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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