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________________ आमुख उनपचास कि विषयों के दास दीपक के पास दौड़कर आने वाले पतंगा की दशा को प्राप्त करते हैं। विषयजनित आनंद कृत्रिम (artificial) है। उसमें स्थायीपन नहीं है। वह विपत्ति प्रचुर भी है। स्वावलम्बन तथा सदाचार द्वारा उपलब्ध आनन्द अपूर्व होता है। समंतभद्र स्वामी ने सम्भवनाथ भगवान् के स्तवन में इंद्रियजनित सुख की मीमांसा करते हुए लिखा है - शतहृदोन्मेषचलं हि सौख्यम्, तृष्णामयाप्यायनमात्र हेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्त्रम् तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥ ३ ॥ अर्थ : भगवन् ! आपने कहा है कि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला सुख बिजली को चमक के समान क्षणस्थायी है। वह सुख तृष्णारूपी रोग का एकमात्र हेतु है। उसके सेवन करने से विषयों की लालसा बढ़ती है। यह तृष्णा की वृद्धि निरन्तर संतप्त करती है। उसो कारण यह संताप जगत् को कृषि, वाणिज्यादि कार्यो में प्रवृत्त कराकर अनेक प्रकार के कष्टों से दुःखी बनाता है। जिस ३० जनवरी १९४८ के दिन गोडसे ने गोली मारकर गांधी जी की जीवनलीला समाप्त की थी, उस दिन प्रभातकाल में वे शायर के इस गीत को ध्यान से सुन रहे थे : है बहारे बाग दुनिया चन्द रोज। देख लो इसका तमाशा चन्द रोज॥ अर्थ : यह जगत् एक बगीचे के समान है, जिसमें सौरभ तथा सौन्दर्य थोड़ी देर निवास करते हैं । यह स्थायी आनन्द का स्थल नहीं है। इसका तमाशा कुछ समय पर्यन्त रहता है, उसे देख लो। वह आसक्ति के योग्य नहीं है। इस क्षणिक आनन्द तथा वैभव के पीछे मनुष्य तो क्या, सांस्कृतिक संपत्ति का उत्तराधिकारी यह देश भी आँख बन्दकर सुख-प्राप्ति के मार्ग पर दौड़ लगा रहा है। भारतवासियों को, शासकों तथा शासितों को महाभारत के शान्तिपर्व में प्रतिपादित भीष्म की पुण्यवाणी को ध्यान में रखना चाहिए - "धर्मेण निधनं श्रेयः, न जयः पापकर्मणा।" __ अर्थ : धर्म (अहिंसात्मक जीवन) के साथ मृत्यु अच्छी है, पाप कार्यो के द्वारा विजय भी बुरी है।' पाप की आधारशिला पर अवस्थित अभ्युदय वास्तविक आनन्द और शान्ति से दूर रहता है। किसी भवन की नींव में यदि मुर्दा डाल दिया जाय और उस पर दया के देवता का मंदिर बनाया जाय, तो क्या उस स्थान पर भगवती अहिंसा का निवास होगा? दया के देवता के मंदिर की नींव में रक्त नहीं, प्रेम का अमृत सींचा जाना चाहिए। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह अपना स्व' अपने शरीर तथा परिवार को ही नहीं मानकर प्राणीमात्र को अपना 1. "Death through Dharma is better than victory through a sinful act" • The Mahabharata Condensed, Madras, P. 401 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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