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________________ चारित्र चक्रवर्ती पंचपाप त्याग : महाराज ने कहा - " शास्त्रों में लिखा है कि जीव को पंचपापों का त्याग करना चाहिए। इस पापत्याग से यह जीव हीन गतियों में नहीं जाता है । व्रती जीव देवगति में ही जाता है, इसलिये पापों का त्याग करना चाहिये । सम्यक्दर्शन तो देखने में नहीं आता है। किन्तु व्रत धारण किया है यह बात प्रत्येक के देखने में आती है, इसलिए सब लोगों को हिंसादि पापों का त्याग कर व्रती बनना चाहिए ।" ३३४ १४ जून का मार्मिक उपदेशमार्दव परिणाम मार्दव परिणाम : महाराज ने ता. १४ को अपने मार्मिक उपदेश में कहा था- "हमें घर छोड़कर दीक्षा लिए हुए करीब ४० वर्ष हो गए। आप लोग हमारी प्रशंसा करते हैं, यह अच्छा नहीं लगता है। हम केवली, अवधिज्ञानी, ऋद्धिधारी अथवा महिमाशाली मुनि नहीं हैं । अढ़ाई द्वीप में विद्यमान समस्त मुनियों में हमारा अन्तिम स्थान है । हमारी जयंती से क्या प्रयोजन है ? हम तो रोक रहे थे, किन्तु लोग रुकते नहीं हैं । " दयाधर्म : उन्होंने कहा था- " धर्म का रक्षण करो तो वह आपका भी रक्षण करेगा। इस धर्म का मूल दया है, इस धर्म से न केवल मोक्ष, बल्कि अर्थ का भी लाभ होता है। आज प्रजा' में गड़बड़ी है, धन-धान्य का कष्ट है, संकटों की सीमा नहीं है। इसका क्या कारण है ? यदि लोग दयामय धर्म का रक्षण करें तो वह धर्म तुम्हारे संकटों को दूर करेगा। केवल मनुष्य की अहिंसा के द्वारा गांधी ने लोक सफलता प्राप्त की है। " दीप शिखा सम श्री जिनवाणी : उन्होंने कहा था - " जिनेन्द्र की वाणी में श्रद्धान रखो, वह दीपक के समान है, मोह की अँधियारीयुक्त रात्रि में जिनवाणीरूप दीपक को नहीं भूलना चाहिए। इससे काँटा गड़ने अथवा गड्ढे में गिरने आदि का भय नहीं रहता है। जिनवाणी के मंत्र को पाकर कुत्ते के जीव ने देव पद पाया था । केवली भगवान् सूर्य के समान है। उनकी वाणी दीपक के समान है। उनकी वाणी का साक्षात् जिनेन्द्र के समान आदर करना चाहिए | जिनेन्द्र की वाणी में अपार शक्ति है। उसमें हमारा विश्वास नहीं है, इसलिए हम असफल होते हैं 99 पंचमकाल का बाल्य-काल : उन्होंने कहा था- "अभी पंचमकाल का बाल्यकाल है, इसलिए जिनधर्म का लोप नहीं होने वाला है। भगवान् की वाणी औषधि के समान है और पापों का त्याग करना उस औषधि ग्रहण के लिए पथ्य के समान है। लोग धर्म की बातें जानते हैं किन्तु उनमें श्रद्धा का अभाव है। हिंसा करना महापाप है धर्म का प्राण तथा जीवन-सर्वस्व यह अहिंसा धर्म है। शासन सत्ता को भी इस अहिंसा धर्म को नहीं भूलना १. कुंदकुंदस्वामी ने रयणसार में दयादिसद्धर्मे (६५) शब्द द्वारा दयाभाव को समीचीन धर्म कहा है । गौतम गणधर ने कहा है कि धर्मस्य मूलं दया । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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