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आगम
३२६ प्राणांत हो गया।"
इसलिए आचार्यश्री ने कहा था कि सामायिक तक तो वे यहाँ हैं, आगे का हमें नहीं मालूम। लगभग १९३६ की घटना है। एक धर्मात्मा श्रावक ने आचार्य देशभूषण महाराज को कामठी में प्रणाम किया। उसी क्षण उसकी मृत्यु हो गई। जीवन का कोई भरोसा नहीं है। विवेकशून्य भक्ति
बारामती में एक धुरन्धर शास्त्रीजी आये। उन्होंने महाराज के चरणों पर पुष्प रख दिया। महाराज ने पूछा, “यह क्या किया ?"
वे बोले-“महाराज देव, गुरु, शास्त्र समान रूप से पूज्यनीय हैं। देव की पुष्प से पूजा के समान आपकी चरणपूजा की है।
महाराज ने कहा, “ऐसा करोगे तो बड़ा अनर्थ हो जायेगा, भगवान् के अभिषेक के समान शास्त्र का अभिषेक नहीं किया जाता है। हर एक बात की मर्यादा होती है।"
अपने वचन के पक्ष में पोषणार्थ पुनः शास्त्रीजी ने पूछा, “महाराज! चरणों पर पुष्प रखने से क्या बाधा हो गई ?"
महाराज ने कहा - "शरीर की उष्णता से जीवों का प्राणघात हो जायगा, अत: ऐसा नहीं करना चाहिए।"
इसके पश्चात् महाराज ने भक्तों की अद्भुत लीला का एक पुराना उदाहरण बताया। शीत ऋतु थी। एक दिगम्बर मुनिराज पूना जिले में एक नगर में आए। भक्तों ने उनका पंचामृत अभिषेक किया, क्योंकि उन्होंने देव के समान गुरु को भी समझा। अत: उन्होंने ठंडे जल के भरे घड़ों से, गन्ने के रस से भरे घड़ों आदि से उनका अभिषेक कर डाला। इस मूढ़-भक्ति से उनको सन्निपात हो गया और वे मर गये।" यह कहते हुए सस्मित वदन महाराज ने भक्त शास्त्री से कहा, “मर्यादा के भीतर ही भक्ति रखना ठीक है।"
मैंने महाराज से कहा- “महाराज! एक समाज के विख्यात ग्रंथकार ब्रह्मचारीजी की मृत्यु के उपरांत उनके शरीर को स्नान कराया गया। उनके मस्तक में 'ॐ' लिखा गया, तो क्या ऐसा करना उचित है?" __महाराज ने कहा-“ऐसा नहीं करना चाहिए। मुनिराज की मृत्यु होने पर उनकी देह को पद्मासन करो। पंचामृत से शरीर के पृष्टभाग का स्नान कराओ, कमंडलु को आगे रखो और गर्दन के पीछे पिच्छि को रखकर शरीर का दाह करो। दाह करने के बाद शरीर की भस्म को आदरपूर्वक लगाओ।" मैंने पूछा-"महाराज ! पृष्ठ भाग का स्नान करे, आगे के भाग का क्यों नहीं"? महाराज ने कहा - "कदाचित् उसमें प्राण आ जावें, और जलादि मुख के भीतर ला जावे, तो दूषण आ जायगा"।
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