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________________ ३१७ चारित्र चक्रवर्ती अद्भुत निधि ___ यदि समयक्त्व ऐसी अद्भुत निधिन होती, तोबुद्धिजीवी विद्वान् जैसे विश्वविद्यालयों से धड़ाधड़ उत्तीर्ण हो प्रमाणपत्र प्राप्त करते हैं, वैसे ही अध्यात्मचर्चा में दक्षता प्राप्त कर तथा अध्यात्म ग्रंथों को कण्ठस्थ करके न जाने कितने ही जीव समयक्त्व की डिग्री पा लेते, किन्तु उसकी डिग्री ऐसी सरल नहीं है। ऐसी स्थिति में आत्मकल्याण के लिए अशुभ को त्यागकर शुभोपयोग के साधन में जीव का कल्याण नहीं हो सकता है। अशुभ भाव को त्याग कर सदा धरो शुभ भाव । शुद्धभाव आदर्श हो यह आगम का भाव ॥१॥ हिंसादिक दुर्भाव हैं, जिन पूजादि सुभाव । दया-दान-व्रत धारकर लागहु मोक्ष उपाय ॥ २.॥ शुभोपयोग के लिए बाह्य वातावरण तथा अन्य साधनों का महत्व नहीं भुलाया जा सकता है। इस विषय के कुछ उदाहरण अपवादरूप में उपस्थित किये जा सकते हैं, किन्तु वे अत्यन्त अल्प संख्या वाले होंगे। अधिकतर ऐसा ही अनुभव मिलेगा, जिससे निमित्त कारण की आवश्यकता को स्वीकार करना पड़ेगा। निमित्त का एकान्त पक्ष योग्य नहीं है। अध्यात्म शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् अमृतचन्द सूरि ने लिखा है कि परिणामों की निर्मलता के लिए हिंसा के आयतनों-निमित्तों को दूर करना चाहिए। यदि निमित्त कुछ कार्य न करता, तो ऐसा कथन क्यों किया गया? यदि निमित्त कुछ नहीं करता है, तो तीर्थंकर प्रकृति के बंध के लिए भावों को ही कारण कह देते, केवली अथवा श्रुतकेवली का सानिध्य तथा नरत्व की आवश्यकता क्यों कही गई है ? इसीसे आचार्य शांतिसागर महाराज ने कहा था, “निमित्त का एकान्त मिथ्यात्व है। निमित्त पुष्प सदृश है, वह फल को प्राप्त करा देता है।" यदिअकार्यकारी निमित्त को मान उसका आश्रय लिया जाता है, तोआकाशकुसुम का भी अवलम्बन मानना होगा, वह भी अकार्यकारी है। कारण युगल स्वामी समंतभद्र ने निमित्त तथा उपादान कारणों की पूर्णता को ही कार्य का जनक बताया है। उपादान शक्ति तो सदा वस्तु में विद्यमान रहती है, योग्य निमित्त उस शक्ति को व्यक्त करने में योगदान करता है। सुवर्ण पिण्ड में कुंडल आदि रूप परिणमन का सामर्थ्य है। जब स्वर्णकार तथा यंत्रादि का निमित्त मिलता है, तब निमित्त-उपादान योग द्वारा इष्ट रूप सुवर्ण का परिणमन होता है। देखिए समंतभद्र स्वामी क्या कहते हैं - "यद्वस्तु बाह्य गुणदोष सूतेर्निमित्तम्" ( यदि बाह्य पदार्थ गुण-दोष की उत्पत्ति में कारण होते तो..): "हे जिनेन्द्र! आपके मन में कार्य के विषय में यह उपादान कारण तथा सहकारी कारण की संपूर्णता ही द्रव्यगत स्वभाव है। यदि निमित्त तथा उपादान कारण की पूर्णता न मानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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