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________________ आगम अब आचार्यश्री की दृष्टि आत्मा की ओर अधिक केन्द्रित हो गयी। उन्होंने कहा था, "धर्म का संकट चूँकि दूर हो गया है, अत: अब हमें कोई विकल्प नहीं है। अब आनन्द भगवान का नाम लेना है और आत्मा का ध्यान करना है। अब हमें और क्या करना है ?" षट्खण्डागम के सूत्र में संजद शब्द के विषय में खुलासा षट्खण्डागम के सूत्र में संजद शब्द के विषय में आचार्यश्री ने कहा कि क्यों इस शब्द के बारे में उन्होंने विशेष ध्यान दिया ? वे कहने लगे, "हमने फतेहचन्द ब्रह्मचारी के द्वारा तुमको पत्र भिजवाया कि तुम हमें धवल ग्रंथ के सूत्रों की नकल करके भेज दो। 'तुम्हारा पत्र आया कि महाराज ! चालीस हजार श्लोक प्रमाण सारा ग्रंथ सूत्ररूप ही है। उसमें चार-पाँच हजार श्लोक प्रमाण ग्रंथ नष्ट हो गया है।' इस समाचार को प्राप्त करके हमें ऐसी चिन्ता हुई, जिस प्रकार श्रुतसंरक्षण के लिए धरसेन स्वामी को हुई थी। उस दिन रात्रि को हमने बहुत विचार किया कि भगवान् महावीर की वाणी इन सूत्रों में थी, यदि वह चार-पाँच हजार श्लोक नष्ट हो गये हैं, तो आगे इसकी किस प्रकार रक्षा की जाय ?" आगम रक्षण की भावना दूसरे दिन हमने श्रावकों से कहा, हमारे मन में ऐसी इच्छा होती है कि सिद्धांतग्रंथों के रक्षण के लिए उनको ताम्रपत्र में खुदवाया जाय। उस समय संघपति गेंदनमल ने कहा, “महाराज, यह काम मैं कर दूँगा ।" हमने गेंदनमल से कहा, "यह काम सबके तरफ से होना चाहिए। एक पर बोझ न हो ।” इतना कह हम सामायिक को चले गये। बाद में आने पर लोगों ने धड़ा-धड़ चंदा करके डेढ़ लाख का फंड तुरंत कर दिया। हमने कभी किसी से रुपया देने को नहीं कहा। हमने जिंदगी में कभी किसी से रुपया नहीं माँगा । हमारी ऐसी आदत नहीं है । " विशेष निमित्त पुन: महाराज ने कहा,“सच पूछो तो इस कार्य में तुम निमित्त हो। तुम्हारे कारण धवलादिशास्त्रों का ताम्रपत्र में रक्षण का महान् कार्य हुआ । " मैंने कहा- "महाराज ! मेरे निमित्त से यह बड़ा काम कैसे हो सकता है ?" महाराज ने कहा- "क्या हमें मिथ्या बात करनी है। जो सत्य बात है, वह कहते हैं तुम्हारे पत्र के कारण ही हमें प्रेरणा मिली और यह काम महावीर भगवान् की कृपा से हो गया है। अब काम बराबर हो रहा है, इसकी भी अब हमें कोई चिन्ता नहीं है। हमें पूरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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