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चारित्र चक्रवर्ती पूछने लगे कि-" महाराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है ? दुग्धपान करना मूत्रपान के समान है?" __ महाराज ने कहा, “गाय जो घास खाती है, वह सात धातु-उपधातु रूप बनता है। पेट में दूध का कोठा तथा मल-मूत्र का कोठा जुदा-जुदा है। दूध में रक्त, मांस का भी संबंध नहीं है। इससे दुग्धपान करने में मल-मूत्र का संबंध नहीं है।" ।
इसके पश्चात् महाराज ने पूछा, “यह बताओ कि तालाब, नदी आदि में मगर, मछली आदि जलचर जीव रहते हैं या नहीं ?"
प्रोफेसर, “हाँ ! महाराज वे रहते हैं, वह तो उनका घर ही है।"
महाराज,“ अब विचारो जिस जल में मछली आदि, जीवों का मल-मूत्र मिश्रित रहता है, उसे आप पवित्र मानते हुए पीते हो, और जिसका कोठा अलग रहता है, उस दूध को अपवित्र कहते हो, यह न्यायोचित बात नहीं है।"
इसके पश्चात् महाराज ने कहा, “हम लोग तो पानी को छानते हैं, किन्तु जो बिना छना पानी पीते हैं, उनके पीने में मलादि का उपयोग हो जाता है।"
यह सुनते ही वे विद्वान् चुप हो गये। संदेह का शल्य निकल जाने से मन को बड़ा संतोष होता है। पुनः महाराज ने यह भी कहा,“जो यह सोचते हैं कि बच्चे के लिए ही दूध होता है, वह भी दोषयुक्त कथन है। बच्चे की आवश्यकता से अधिक दूध होता है।" आचार्यश्री की इस अनुभव उक्ति से उन पठित पुरुषों की भ्रांति दूर हो जाती है, जिन्होंने दूध ग्रहण को सर्वथा क्रूरतापूर्ण समझ रखा है। __जापानी, कोरिया, इण्डोचीनवासी चीनी लोग दूध लेना पंसद नहीं करते हैं। वे समझ बैठे हैं कि इससे गोवत्स के प्रति निर्दयता का प्रदर्शन होता है। आश्चर्य है, कि जो चीनी, जापानी आदि लोग अहिंसावादी बुद्धदेव की चर्चा करते हुए छिपकली, साँप, बिच्छ् सदृश भीषण जन्तुओं तक को अपनी उदर दरी में पहुंचा देते हैं, वे निर्दोष दूध में भी हिंसा की कल्पना करते हैं।' यह बात ध्यान देने योग्य है कि जब बच्चे के मर जाने पर भी गाय, भैंस दूध देती हैं, तब बच्चे के लिए ही दूध देती है, यह कल्पना भ्रान्त सिद्ध होती है। महाराज ने कहा था,“ भगवान् की वाणी के आगे मिथ्या विचारों का निराकरण हो जाता है। यदि दूध ग्राह्य न होता तो उसे भगवान् का अभिषेक के योग्य प्रायः सभी
1. "Milk even at the present day, is regarded as digusting and unfit for food in
china, Korea, Japan, and Indochina..., Despite the fact that they were surrounded by milk- using Turkish and Mongol people, the Chinese looked down upon milk-users and maintained that is was cruel to deprive a calf of its mother'smilk-"
J.L. Gillin and J.P. Gillin “Cultural Sociology.' Page 215 Jain Education International For Private & Personal Use Only
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