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________________ प्रभावना २५६ तर्क संगत दिखता है, कारण जंबूस्वामीचरित्र में लिखा है कि ततो जगाम निर्वाणकेवली विपुलाचलात्, इस कारण मथुरा को जम्बूस्वामी की निर्वाण भूमि मानना आगमोक्त बात नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर विदित होगा कि मथुरा ने जैनधर्म की प्राचीनता को प्रमाणित करनेवाली अत्यन्त महत्वपूर्ण सामग्री प्रदान की है। अतः उसका निर्वाण स्थल न होते हुए भी अपना स्वयं का महत्व है। मथुरा के कंकाली टीला की खुदाई में डा. फुहरर ने अनेक महत्वपूर्ण जैन मूर्तियां प्राप्त की थी, जो लखनऊ के संग्रहालय में हैं। मथुरा के संग्रहालय में लगभग ६० दिगम्बर मूर्तियाँ हैं। बाद की खुदाई में और भी जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हुई थी, किन्तु वे सब प्रायः खंडित हैं। मथुरा की खुदाई में एक भी श्वेताम्बर मूर्ति नहीं प्राप्त हुई है। सभी दिगम्बर जैन मूर्तियाँ ही हैं। मथुरा में एक देवनिर्मित स्तूप मिला है, जो शक संवत् ७६ का अर्थात् ईस्वी सन् ७६ +७८ = १५७ का है। उसकी भाषा प्राकृत है और लिपि ब्राह्मी है। उस टीले में ११० जैन शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जो प्रायः कुशान वंशी राजाओं के समय के है। स्मिथ महाशय उनको ईसा की प्रथम तथा द्वितीय सदी का मानते हैं। एक खड्गासन जैन मूर्ति पर लिखा है कि यह अरहनाथ तीर्थकर की प्रतिमा ७६ सम्वत् में देवों के द्वारा निर्मित इस स्तूप की सीमा के भीतर स्थापित की गई। महत्वपूर्ण स्तूप इस स्तूप के विषय में फुहरर साहब लिखते हैं कि यह स्तूप इतना प्राचीन है कि इस लेख की रचना के समय स्तूप आदि का वृतान्त विस्मृत हो गया होगा। लिपि की दृष्टि से यह आदि लेख इंडोसिथियन संवत् (शक) अर्थात् १५० ईस्वी का निश्चित होता है। इसलिए ईस्वी सन् से अनेक शताब्दी पूर्व यह स्तूप बनाया गया होगा। इसका कारण यह है कि यदि उसकी इस समय रचना की गई होती, जब कि मथुरा के जैनी सावधानीपूर्वक अपने हाल को लेखबद्ध कराते थे, तो इसके निर्माताओं का भी नाम अवश्य ज्ञात रहता। ईसा से दो सदी पूर्व की जैन सामग्री इस विषय में स्मिथ महाशय का भी यही कथन है। अतः यह सम्भव है कि ईसवी सन् के पूर्व उसका निर्माण हुआ होगा और वह कम से कम प्राचीनतम बौद्ध स्तूप के बराबर प्राचीन रहा होगा। मथुरा संग्रहालय की दूसरी रिपोर्ट में लिखा है कि मथुरा के कंकाली टीला में ईसा से दो सदी पूर्व की महत्वपूर्ण जैन सामग्री उपलब्ध होती है। रिपोर्ट के पृष्ठ ३८६ पर ईस्वी सन् १६२ की जैन तीर्थंकर वृषभनाथ की मूर्ति का उल्लेख है जो कि एक कुटुम्बिनी ने विराजमान की थी, तथा जिसने अपने पति, श्वसुर तथा गुरु के नाम का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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