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________________ प्रभावना २१४ इस चर्चा को सुनकर आचार्य महाराज बोले, “मक्खी अनेक पुष्पों के भीतर के छोटेछोटे कीड़ों को और उनके रस को खा जाती है। खाने के बाद वह आवश्यकता से अधिक रस को वमन कर देती है। नीच गोत्री विकलत्रय जीव का वमन खाना योग्य नहीं है। वमन में जीव रहते हैं। वमन खाना जैनधर्म के मार्ग के बाहर की बात है। थूक का खाना अनुचित कार्य है।" महाराज ने यह भी कहा था, "जो बात केवली के ज्ञान में झलकती है, वह साइन्स में नहीं आती। साइन्स में इन्द्रियगोचर स्थूल पदार्थों का वर्णन पाया जाता है।" महाराज के संघ ने आधुनिक शिथिलाचारपूर्ण प्रवृत्तियों की आलोचना करके समाज का कुमार्ग में पतन रोका था। महाराज जो कहते थे, वह किसी के कहने से नहीं, हृदय की प्रेरणा से कहते थे। वे इतने उच्च ज्ञानवान रहे हैं कि बड़े-बड़े विद्वान् उनके समक्ष चर्चा करते समय अवाक हो जाते थे। वे महाराज के प्रश्नों और युक्तिवाद का उत्तर नहीं दे सकते थे, अतः उनको प्रभावित किये जाने की जो बात सोचते हैं, उनमें सत्य का अंश भी नहीं था। आगम के प्रमाण बताकर कोई भी व्यक्ति आचार्यश्री को प्रभावित कर सकताथा और आगम के विरुद्ध विधाता भी आकर उनकी श्रद्धा को विचलित नहीं कर सकता था। आजकल दुर्भाग्यवश ऐसे लोगों का संगठन बन गया है, जो आगम के अनुसार अपनी श्रद्धा और बुद्धि को न बनाकर अपने मन के अनुसार आगम के किसी अंश को अप्रमाण कह दिया करते हैं। ऐसे व्यक्ति सम्यक्त्व से कोसों दूर होते हुए भी स्वयं को सम्यक्त्वी शिरोमणि कहते हैं। मुमुक्षु को आचार्यश्री के अनुसार आगम में श्रद्धा रखनी चाहिए। शीलप्रचार (विधवा विवाहादि कुप्रचारों पर अंकुश) __ आज के युग में सामाजिक संगठन और सदाचार रक्षणार्थ सज्जातित्व की रक्षा को आवश्यक बताते थे। शीलधर्म के प्रचार को महाराज ने बहुत प्रेरणा दी थी। उनके महत्वपूर्ण व्यक्तित्व और उपदेश के प्रभाववश दक्षिण प्रान्त में धरेजा, पाठ, यापुनर्विवाह की कुछ समय से प्रचलित प्रथा का प्रचार बहुत मात्रा में न्यून हो गया, तथा उत्तरप्रान्त में जो विधवा विवाह का व्यवस्थित आन्दोलन आरम्भ हुआ था, उसका भी तत्काल मूलोच्छेद हो गया। इस प्रकार आचार्यश्री ने स्वयं तथा संघ के साधुओं के द्वारा शीलसदाचार का पोषण करके मोक्षमार्ग की उज्ज्वल प्रवृत्ति को लांछनरहित रखा था। लोककल्याण को लक्ष्य में रखकर वे उपदेश देते थे। लोकरुचि नहीं, लोककल्याण को देखकर उपदेश आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि : "जो वक्ता श्रोताओं की इच्छानुसार उपदेश देता है, वह कलिकाल के अंग सदृश है। मार्गदर्शक सन्मार्ग का दर्शन करने में प्रशंसा-प्राप्ति के बदले कल्याण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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