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________________ प्राक्कथन श्रमण जगत् में महामुनिंद्र चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शांतिसागरजी महाराज का सर्वोपरि स्थान रहा है। उन्होंने अपने तप, त्याग, संयम पालन द्वारा मुनिमार्ग को आगमोक्त मार्ग बताया। उनका जीवन पथ प्रदर्शक के रूप में था। वर्तमान में आज जो हमारी श्रमण संस्कृति के साधक मुनिगण विद्यमान हैं वे उन्हीं ऋषिराज की कृपा से हैं। संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी महाराज के शब्दों में - प्रायः कदाचरण युक्त अहो धरा थी, सन्मार्ग - रूढ़ मुनि मूर्ति न पूर्व में थी। चारित्र का नव नवीन पुनीत पंथ जो भी यहां दिख रहा तव देन संत ॥ उन महान् परोपकारी गुरूराज का पुण्य जीवन चरित्र चारित्र चक्रवर्ती समाज के मूर्धन्य विद्वान् बालब्रह्मचारी, धर्म - दिवाकर, विद्वतरत्न, विद्यावारिधिस्व. पंडित सुमेरूचंदजो दिवाकर बी.ए., एल.एल.बी., सिवनी, म.प्र. ने लिखा। पूज्य पंडित जी (हमारे सबसे बड़े भ्राता जिन्हें वैसे हम सभी ‘दादा जी' कहा करते थे) का संपूर्ण जीवन धर्म, समाज और साहित्य - सेवा में बीता। उनके द्वारा रचित संपादित साहित्य में समाज के लिये मार्गदर्शन के रत्न भरे हुए हैं जिनसे हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी आपमें चारित्र, विद्वत्ता और भक्ति को त्रिवेणी में अवगाहन करके लाभान्वित होगी। किंतु आपने चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ लिखकर समाज का जो महान् उपकार किया है वह वर्णनातीत है। पूज्य पंडितजी के देहावसान (२५ जनवरी १६६४) पर भारतवर्षीय दिगम्बर जैन (धर्म संरक्षिणी) महासभा, महाराष्ट्र राज्य शाखा, बम्बई द्वारा प्रेषित संवेदना प्रस्ताव के ये शब्द उल्लेखनीय हैं- "दिगम्बर जैन संस्कृति का वर्तमान का महान् शिल्पकार, समाज ने खो दिया है। वर्तमान में दिगम्बर जैन मुनि परंपरा का गौरव उन्नत करने में वह समर्पित जीवन अंत समय तक इसी कार्य की सुरक्षा में लीन रहा । वर्तमान की इस परंपरा पर जब भी, जहाँ से भी आघात हुआ उसको रोकने हेतु सफलीभूत आवाज उठाने वाले सबसे अगुआ विद्वान के अब दर्शन दुर्लभ हैं।". चारित्र चक्रवर्ती जैसा महान ग्रंथ उनका जीवन स्मारक है । पंडित जी के देह का अवसान अवश्य हुआ है, मगर चारित्र चक्रवर्ती के महान् शिल्पकार के रूप में युगों - युगों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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