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________________ १८० चारित्र चक्रवर्ती जन्म हुआ था। वही पुण्य दिवस दोनों तीर्थंकरों का दीक्षा काल था, ललितकूट और सुवर्णभद्रकूट इस ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। अंत में पारसनाथ भगवान का सुवर्ण भद्रकूट मिला। वहां से बयासी करोड़, चौरासी लाख, पैतालीस हजार, सात सौ ब्यालीस मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया था। वहां आकर भव्यात्मा पढ़ता है - जुगल नाग तारे प्रभू पार्श्वनाथ जिनराय । सावन सुदि सातें दिवस लहे मुक्ति शिवराय॥ वहां श्रान्त यात्री को शीतल समीर प्रेमपूर्वक भेंट करती हुई महान् शांति तथा नवस्फूर्ति प्रदान करती है। वहां ऐसा मन लगता है कि जाने की इच्छा ही नहीं होती। गजराज वज्रघोष ___ कितनी पवित्र, मनोरम, आनंददायनी यह निर्वाण भूमि लगती है, जहां गजराज' के जीव ने रत्नत्रय के द्वारा जगराज'पार्श्वप्रभु का पद प्राप्त करके पश्चात् मोक्ष प्राप्त किया था। इस स्थल पर वादिराज आचार्य रचित पार्श्वपुराण का सुन्दर चित्र मनोमंदिर के समक्ष उपस्थित होता है, जिसमें मुनि अरविंद मरुभूति के जीव गजराज को इस प्रकार समझाते हैं “हे गजेन्द्र! सुपुष्टसम्यक्त्वरूप हंस से शोभायमान मानस(मानसरोवर) से प्रेम कर अणुव्रत रूप पद्म के आकर (सरोवर) में अवगाहन कर प्रिय और पुण्य जल को पी।" इस उपदेश ने उस जीव को जो प्रेरणा दी उससे वह आत्मा विकसित हो पार्श्वनाथ तीर्थकर बन मुक्ति मंदिर में पधारी। महान् आत्मा बनने वाले जीव में संयम की ज्योति बहुत पहले से पहुंचकर असंयम के अधंकार को दूर किया करती है। आज का साक्षर, सुसंस्कृत, संपन्न मनुष्य जिन नियमों को पालन करने में डरता है, वे नियम भगवान पारसनाथ ने गज की पर्याय में पाले थे। कवि भूधरदास कहते हैं: अब हस्ती संयम साधै, त्रस जीव न मूल विराधे । सम भाव छिमा उर आने, अरि मित्र बराबर जाने । काया कसि इन्द्री दण्डै , साहस धरि प्रोषध मंडे । सूखे तृण पल्लव भच्छे , परमर्दित मारग गच्छै ।। हाथी गन डोल्यो पानी, सो पीवे गजपति ज्ञानी। बिन देखे पांव न राखे, तन पानी पंक न नाखे । निज शील कभी नहिं खोवे, हथिनी दिशि भूल न जावे । उपसर्ग सहै अति भारी, दुरध्यान तजे दुखकारी। कुरू कुजूर! मानसे रतिं दृढ़सम्यक्त्व - मरालराजिते। त्वमणुव्रत - पद्म - सद्यनि प्रियपुण्याम्बु निगाह्य पीयताम् ।। ३-६० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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