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________________ १६६ चारित्र चक्रवर्ती दिखती। उनकी वाणी का हृदय से संबंध नहीं रहता है। ___ महाराज ने कहा था-"हिंसा आदि पापों का त्याग करना धर्म है। इसके बिना विश्व में कभी भी शांति नहीं हो सकती। इस धर्म का लोप होने पर सुख तथा आनंद का लोप हो जायगा। धर्म का मूल आधार सब जीवों पर दया करना है। यह धर्म, जीवन से भी बहुमूल्य है इसके रक्षण के लिए प्राणों का भी मोह नहीं करना चाहिए। इस धर्म को भूलने वाला जीव कभी भी सुख नहीं पाता। पुराण, ग्रंथों में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि इस धर्म का पालन करने वाले छोटे जीवों ने भी सुख प्राप्त किया और उसे भूलने वालों ने दुर्गति में जा दुःख भोगा है। इस धर्म के द्वारा जीव सुखी होता है, सब प्रकार का वैभव पाता है; इसलिए इस धर्म पालन करने में प्रत्येक विवेकी जीव को लगना चाहिए।" महाराज का यह भी कथन है-“यदि धर्म डूबता है तो हमें अपने जीवन की भी चिन्ता नहीं।” उनका यह कथन पूर्णतया ठीक है। जब भी धर्म और कर्त्तव्य के मार्ग में विपत्ति आयी है तब उनने प्राणों की बाजी लगायी है और उनकी धर्मभक्ति से विपत्ति की घटा सदा दूर हुई है। उनका यह भी कथन है कि समता जैनधर्म का मूल है। जिनेन्द्र की वाणी के अनुसार चलने में कल्याण है। शक्ति के अनुसार धर्म का पालन करो। यदि हिंसादि पंच पापों के त्याग की शक्ति नहीं है, तो एक का ही त्याग करो। शक्ति के अनुसार त्याग करने में भलाई है। मार्ग को उल्टा करने में बड़ा पाप है। धर्म का मूल दया और समता है दयापूर्ण अंतःकरण वाला जैन है। जैन जाति नहीं है। जैन धर्म है। आगम में धर्म की अनेक परिभाषाएं की गई हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दह विहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ।। वस्तु का स्वभाव धर्म है। उत्तम क्षमादि दस प्रकार के परिणाम धर्म हैं। रत्नत्रय धर्म है, तथा जीवों की रक्षा करना धर्म है। गौतम गणधर ने कहा है, "धर्मस्य मूलं दया' (धर्म की जड़ दया है)। भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से धर्म का स्वरूप कहा गया है। "जैनधर्म को धारण करने का सबको अधिकार है। जैनधर्म धारण करने का किसी को भी निषेध नहीं है। चांडाल धीवरादि ने जैन धर्म धारण कर स्वर्ग लोक पाया है। स्वर्ग की कोई कीमत नहीं है। महत्व है मोक्ष का। शूद्र भी देव पद पायेगा। वहां से मनुष्य हो मोक्ष को प्राप्त करेगा। जैन धर्म के द्वारा जीव का दुःख दूर होता है।" एक शंका एक बार मैंने महाराज के मुख से यह सुना कि जैन धर्म के द्वारा जीव को सुख मिलता है, तब मैंने पूछा था-“महाराज! इस जैन धर्म ने आपको जितना दुःख दिया, उतना किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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