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________________ तीर्थाटन १५६ कि ये आत्मशुद्धि तथा लोक कल्याण में कितने व्यस्त रहते हैं। ये रागद्वेष, मोह, क्रोध, कलह मायामयी दुनिया के कदम पर कदम न रख आत्मोत्कर्ष के पथ पर चलते हैं। इससे कोई कोई यह सोचते हैं, ये जीवन संग्राम से डरकर भागते हैं। अंग्रेज लेखकों का अनुसरण करते हुए श्री जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं-बुद्ध धर्म तथा जैन धर्म ने जीवन से दूर रहने पर जीवन से दूर भागने पर जोर दिया है। ये उद्गार जैन गृहस्थों के विषय में तनिक भी नहीं लागू होते हैं, कारण गृहस्थाश्रम में लौकिक जीवन यात्रार्थ न्यायपूर्ण प्रवृत्ति का जैन आगम में उपदेश है, तथा यह देखने में आता है कि अपने तथा सार्वजनिक कार्यों में जैन गृहस्थ योग्य भाग लेता है, राष्ट्र और जगत की समृद्धि और सेवा में हाथ बटाता है। क्या जैन मुनि जीवन से दूर भागते हैं ? __ जैन मुनि के विषय में भी यह कथन असंगत है, कारण सच्चे जीवन में उनकी प्रवृत्ति होती है। मोही जगत के समान उनकी जीवन धारा न देखकर उन्हें जीवन के उत्तरदायित्व से दूर भागने वाला बताना न्यायोचित नहीं है। उनका मुख्य लक्ष्य है आत्मा से राग, द्वेष, मोह, माया आदि कलंकों को दूर कर उसे पूर्ण पवित्र, सर्वज्ञ, परम ज्योति स्वरूप परमात्मा बनाना, अतः उनको संसार के जाल से अपने आपको बचाना आवश्यक है। जिस पुद्गल की आराधना को जड़वादी जीवन मानता है, उसे ये महात्मा मुनीन्द्र मृत्यु जानते हैं। इनका लक्ष्य अमृतत्त्व को प्राप्त करना है, जिस पर कालबली का जोर नहीं चलता है। पाश्चात्यों के यहां स्वाधीनता का जो स्थान है, वही स्थान इन श्रमणों की दृष्टि में मुक्ति का है। शत्रु चाहे भीतरी हों या बाहरी उनके बंधन में पड़ना ही पराधीनता है। काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का बंधन काटने पर ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। इससे ये मुनिराज उन प्रसंगों से दूर रहते हैं जो आत्मा को अंतरंग शत्रुओं का कैदी बनाते हैं। वासनाओं पर विजय ये विवेकी वासनाओं की दासता को नरक से भी भीषण वस्तु मानते हैं, अतः वासनाविजय के हेतु ये अपने संपूर्ण इंद्रिय सम्बन्धी सुखों को छोड़कर आत्मशुद्धि के श्रेष्ठ उद्योग में संलग्न होते हैं। उस कार्य के लिए ये कम से कम समय निद्रा में लगाते हैं। अल्प सात्विक आहार लेकर निरंतर जागृत रहते हैं। अध्यात्मवाद के सूर्य को देखने का जिन आंखों को अभ्यास नहीं है। वे चक्षुगोचर कार्यसंलग्नता को ही काम मानते हैं। 1. “Budhism and jainism rather emphasised the abstention from life-running away from life.” -Jawaharlal Nehru : 'Discovery of India', p.83. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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