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________________ दिगम्बर दीक्षा श्री वीरसागरजी व नेमिसागरजी की मुनि दीक्षा समडोली में वीरसागरजी ने निर्ग्रन्थ दीक्षा ली। श्री नेमण्णा ऐलक महाराज ने भी मुनिपद स्वीकार किया। वे ही आज के उग्रतपस्वी, परमशांत और सरलता की मूर्ति ने मिसागर महाराज के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। जिस समडोली में दो महान् आत्माओं ने समता पूर्वक निर्ग्रन्थ दीक्षा ली थी, वह समताभाव को जगाने वाली समडोली साधर्मी समुदाय में महिमामय बन गयी । वहाँ चार माह पर्यन्त धर्मामृत की वर्षा का काल आ गया था। महाराज जहाँ चातुर्मास में रहते थे, वहाँ धर्मामृत की वर्षा द्वारा अगणित जीवों का कल्याण होता था । जैसे आकाश से मेघमंडल द्वारा की गई वर्षा चारों ओर हरित वनस्पति का सुन्दर साज सजाती है, उसी प्रकार इन महापुरुष की कल्याणकारी धर्मवर्षा द्वारा आत्मकल्याण का उपवन भी हरा भरा हो जाता है। उससे जो जीव का कल्याण होता है उसका मूल्य रिजर्व बैंक की सारी सम्पत्ति से भी अधिक है। अपने स्वरूप की उपलब्धि का मूल्य यदि महान् न होता, तो उसकी प्राप्ति के लिए बड़े-बड़े सम्राट व चक्रवर्ती आदि अपने विशाल राज्य का क्यों परित्याग करते ? आचार्य श्री का स्वाध्याय वैभव सन् १६५१ भाद्रपद के पश्चात् पं. जगमोहनलालजी शास्त्री, कटनी, पं. मक्खनलालजी न्यायालंकार, मुरैना, पं. उल्फतरायजी, बम्बई तथा और भी बहुत से विद्वान् महाराज के पास बारामती में पधारे थे और चर्चा के समय महाराज की प्रतिभा का वैभव देखकर चकित होते थे। इतना असाधारण क्षयोपशम सतत श्रुत का अभ्यास तथा तपश्चर्या का सुपरिणाम था । अहंकार के पहाड़ पर बैठे हुए अपने को श्रेष्ठ विद्वान् मानने वाले भाई यदि इनके पास आते, तो उनको पता लगता कि इनका जिनागम का ज्ञान कितना सुलझा हुआ था और इनको उलझा हुआ समझने वाले कितनी गहरी भ्रांति में फँसे हुए थे। एक दिन महाराज कहते थे कि " हम प्रतिदिन कम से कम ४० या ५० पृष्ठों का स्वाध्याय करते हैं । " धवलादि सिद्धांत ग्रंथों का बहुत सुन्दर अभ्यास महाराज ने किया था । अपनी असाधारण स्मृति तथा तर्कणा के बल पर वे अनेक शंकाओं को उत्पन्न करके उनका सुन्दर समाधान करते थे । - दिगम्बर दीक्षा, महान् अनुभवी ज्ञाता एवं सुलझी हुई विद्वतता, पृष्ठ १०६-१०७ Jain Education International ११३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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