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चारित्र चक्रवर्ती यही मिथ्यात्व है। यही सब पापों में प्रमुख है। आज मिथ्यात्व के प्रचार का सर्वत्र जोर देखा जाता है। सत्पथ का प्रतिपादन करने वाले समर्थ पुरुष मिलते भी कहाँ हैं ?
'सागारधर्मामृत' में लिखा है कि आजकल पंचमकालरूपी भीषण वर्षाकाल में मिथ्यात्वरूपी मेघों से सम्यक्ज्ञानरूपी दिशाएँ आक्रान्त हो गई हैं। इस अवसर पर सूर्य चंद्रमा के समान प्रकाशदाता महान् ज्ञानियों, तीर्थंकरों, ऋद्धिधारी-अवधि ज्ञानधारी मुनियों केदर्शन नहीं होते हैं। ऐसे आध्यात्मिक प्रकाशविहीन वातावरण में दु:ख है कि तत्त्वमार्ग के उपदेशक जुगनू की भांति प्रकाश देते हैं।
बड़े दुःख की बात है कि जिस भरतक्षेत्र में तीर्थंकरों ने, श्रुतकेवलियों ने सूर्य के समान सम्यक्ज्ञान तथा मुक्ति मार्ग का उपदेश दिया था, वहाँ कलिकाल रूपी वर्षाकाल आ जाने से दिशाएँ मिथ्या उपदेश रूपी मेघों से ढक गई हैं, अत: सच्चा मार्ग नहीं सूझता है, ऐसी स्थिति में सच्चे गुरु जुगनूं की तरह कहीं-कहीं प्रकाशित होते हैं तथा प्रकाश प्रदान करते हैं।
आज लौकिक विद्या में प्रवीण व्यक्ति सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। वे प्रत्येक घर की शोभा बढ़ाते हैं, किन्तु आत्म कल्याणकारी ज्ञान युक्त पुरुष का दर्शन दुर्लभ हो गया है। सम्यक्ज्ञान की चर्चा करने वाले पुण्यपुरुष कहाँ मिलते हैं ? आचार्य पद्मनंदि ने लिखा है, “आजकल अपने को विद्वान् समझकर महान् वाणी का वैभव दिखाते हुए सभाओं में श्रृंगार आदि रसों से युक्त प्रमोद प्रदान करने वाले तथा मोह-जाल में फंसाने वाले वक्ता घर-घर में विराजमान है, किन्तु जिनसे परमात्मा तथा जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त होता है वे उपदेष्टा दुर्लभ हैं।" ___ ऐसे मोह-संकुल वातावरण में आत्म-तत्त्व की सम्यक्देशना नि:स्पृह, निर्भय भाव से देने वाले सत्पुरुष ऐसे काल में बिरले हैं। हमारे चरित्रनायक ऐसे ही लोकोत्तर दुर्लभ पुरुषों में चूड़ामणि थे। कितनी भी सुन्दर मजबूत सर्वसाधन संपन्न नौका हो, उसमें यदि छिद्र है, तो वह डूबे बिना नहीं रहती। इसी प्रकार सर्व प्रकार का लौकिक ज्ञान हो अथवा अनेक प्रकार की अभ्युदय की सामग्री हो, फिर भी मिथ्यात्व का त्याग जब तक नहीं होता, तब तक यही सर्व वैभव अल्पकालस्थायी है। कुछ समय के बाद वह मिथ्यात्व राक्षस इनके जीवन का सर्वनाश करके, इन्हें नरक तिर्यंचादि योनियों में त्रास दिये बिना न रहेगा। अत: विश्व की विभूति और पूर्ण सुखों का दान एक तरफ और दूसरी तरफ मिथ्याज्ञान को दूर कर सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्त्व की प्राप्ति करना, इनमें सम्यक्त्व लाभ करने के समान हितप्रद कोई वस्तु नहीं है, इससे भव-भव में जीव सुख पाता है तथा मिथ्यात्व के कारण अनंत संसार में भटकता हुआ अनंत दु:खों को भोगता रहता है।
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