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________________ चारित्र चक्रवर्ती सातगौड़ा क्षुल्लक शांतिसागर हो गए। उनमें गुरु की अपेक्षा अधिक तेज तथा कांति थी। दीक्षा के पूर्व वे वर्धमानसागर जी के समान वस्त्र पहिनते थे। आध्यात्मिक सिंह सदृश विहार . उसी पवित्र त्रयोदशी को श्री सातगौड़ा पाटील ने सदा के लिये अपने घर परिवार का मोह छोड़ा और भोज भूमि की ममता को सदा के लिये त्याग दिया। लोग जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से बड़ा मानते हैं, किन्तु आत्मस्वराज्य स्थापन निमित्त इन महामना महापुरुष के मन में वह पौद्गलिकभूमि ममत्व को न जगा सकी। परम विशुद्धता और उत्कृष्ट वैराग्य अलौकिक अंत:करण वाले महाराज ने भोजभूमि के पिंजरे से अपने को उन्मुक्त कर दिया और अब ये अध्यात्मिक सिंह के रूप में इस वसुंधरा पर विहार करने लगे। अब इनकी आत्मा को पूर्ण शांति मिली कारण बाल्य जीवन की मनोकामना को पूर्ण करने का पवित्र पथ प्राप्त हुआ। वैराग्य का कारण एक दिन मैंने पूछा, “महाराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिला होगा? साधुत्व के लिये आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई। पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से प्राप्त हुई थी।" ___ महाराज ने कहा, “हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो । गृह में, कुटुम्ब में, हमारा मन प्रारंभ से ही नहीं लगा। हमारे मन में सदा वैराग्य का भाव विद्यमान रहता था। हृदय बार-बार गृहवास के बंधन को छोड़ दीक्षा धारण के लिये स्वयं उत्कंठित होता था।" भगवान महावीर के संबंध में अशग कवि ने लिखा है, “सुकुमार सरोज सदृश कोमल चरण युगल वाले तथा संसार का नाश करने वाले महावीर भगवान का तीस वर्ष प्रमाण कुमारकाल देवों के द्वारा लाये गये भोगों को भोगते हुए व्यतीत हो गया। एक दिन बिना किसी निमित्त के वे भगवान भोगों से विरक्त हो गये, यही उचित है, क्योंकि तत्त्वज्ञानी मोक्षाभिलाषी आत्मशांति के लिये बाह्य कारणों की प्रतीक्षा नहीं करते रहते।" अब सब श्रीमती का वैभव भोजभूमि में रहा आया और ये लंगोटी पिच्छि तथा स्वल्प सामग्री साथ ले स्वामी जी के पास रहने लगे। जिस प्रकार इनकी बाह्य सामग्री उपलब्ध हुई, उस प्रकार आत्मिक ज्ञान का भंडार कम नहीं हुआ, वह तो कई गुना बढ़ गया। कर्मों की निर्जरा भी बड़े वेग से होने लगी। विशुद्धता निरन्तर वृद्धिंगत हो रही थी। इससे पूर्वबद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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