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________________ वार्तालाप ६४ करूंगा, ऐसा सोचते हुए उसने संहारार्थ आगत यम की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। एक दिन वह अपने सात मंजिल महल में विराजमान था कि अचानक ऊपर से वज्रपात हुआ / बिजली गिरी और भामंडल मृत्यु की गोद में सो गया । दीर्घसूत्रीप्राणी आगामी होने वाली चेष्टाओं को भलीभांति जानते हुए भी आत्मा के उद्धार के कार्य में नहीं लगता है। इस क्षणभर में विनष्ट होने वाले दग्ध शरीर के लिये विषयवासना में उलझा जीव हताश होकर क्या नहीं करता है ? जो जीव सम्मान आदि सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करता है और अपने हित में लगता है वह असफल होकर नष्ट नहीं होता। ऐसा हजारों शास्त्रों का ज्ञान किस काम का, जिनसे कि आत्मा को शांति न मिले ? जिस एक पद के द्वारा आत्मा शांति को प्राप्त करता है, वही संतोष का कारण है । प्रतिदिन विविध अनेक कार्यों से आकुलित चित्तवाले दुःखी प्राणी का जीवन प्रमाद से हाथ में रखे हुए रत्न के समान नष्ट होता है । (पद्म चरित्र पर्व १११, पद्य २१) असली व्यापार संयम की आराधना प्रतीत होता है ऐसी ही कोई पवित्र विद्या गुरुदेव के हृदय को प्रकाशित कर चुकी थी, जिसके कारण वे शिखरजी की वंदना के बाद धारणा - पारणा रूपी व्रत, उपवास करने में संलग्न हो गये थे । उनका असली व्यापार संयम की साधना था, घर का व्यापार तो नाममात्र का था । महाराज ने बताया था कि "हमारे पूर्वजों ने क्षत्रिय वृत्ति तथा पाटीलगिरी के सिवाय कभी व्यापार नहीं किया था । यह तो पीछे से व्यापार का कार्य हमारे भाई ने प्रारम्भ किया था । " मैंने पूछा, “महाराज ! जब आप घर में एक पारणा रूप व्रत करते थे तब कुटुम्बी लोग रोकते नहीं थे ? " महाराज ने कहा, “हमने कह दिया था यदि तुमने हमें रोका तो हम बाहर चले जायेंगे, इसलिए हमारे कार्य में कोई अंतराय नहीं बनता था । " सैतीस वर्ष की अवस्था में उनके परिणाम विशेष संयम की ओर लगे, पिताजी की मृत्यु हो चुकी थी इसलिए वैराग्य का वेग वृद्धि को प्राप्त हो गया था। पिताजी ने कहा था तुम मेरे प्राणों के आधार हो । तुम्हारी धार्मिक प्रवृत्ति देख मुझे बड़ा संतोष होता है । मेरी यही इच्छा है कि मेरे जीवन भर तुम घर में रहो, मेरे बाद जैसा दिखे वैसा करना । इन्होंने राम की भांति पिता के आदेश का पालन किया। वनवासी राम का मन अयोध्या को देखता था क्योंकि वे पूर्ण विरागी न थे, महाराज वैरागी थे, इसलिए गृहवास करते हुए भी इनका हृदय तपोवन की ओर जाता था । राम वन निवास करते हुए गृहवासी सदृश थे और महाराज विरक्त गृहवासी होने के कारण वनवासी जैसे लगते थे। Jain Education International ******* For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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