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________________ वार्तालाप ६२ हमें क्या कारण है ? तुम लोग हमारी भक्ति करते हो । बार बार दर्शन को आते हो। तुम्हें देखकर हृदय में दया आती है, इससे तुमसे हम आग्रह करते हैं कि स्वर्ग के जाने के रास्ते को क्यों छोड़ते हो ?” जन कल्याण 66 उन्होंने अपना लोककल्याण का उदार दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए अंत में कहा, 'हमें अपनी तनिक भी चिन्ता नहीं है । जगत के जीवों का कैसे हित हो, यह विचार बार बार मन में आया करता है। जगत के कल्याण का चिन्तवन करने से तीर्थंकर का पद प्राप्त होता है ।" यदि करुणा का भाव नहीं तो क्षायिकसम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है । उपशम, क्षयोपशम सम्यक्त्व में भी वह नहीं होगा। अंत में व्रत प्रतिमा का स्वरूप बताते हुए आचार्य महाराज ने अपनी प्राणपूर्ण मंगलवाणी को विराम दे हुए कहा, केलं पाहिजे, व्रत बरोबर टिकणार ( व्रताचरण करना चाहिये, व्रत अवश्य बने रहेंगे)।” "" गृहस्थी की झंझट कितनी उत्साह और पौरुषभरी ओजपूर्ण वाणी थी वह । आज भी उस दिन का उपदेश स्मरण आता है। महाराज का कथन कितना यथार्थ है कि लौकिक कार्यो में कितना कष्ट नहीं उठाना पड़ता है ? क्षुधा तृषा की व्यथा सहनी पड़ती है ? और भी कितने शारीरिक मानसिक कष्ट नहीं होते ? धन के लिए, कुटुम्ब के लिये गृहस्थ को क्या-क्या कष्ट नहीं उठाने पड़ते ? क्या-क्या प्रपंच नहीं करने पड़ते ? अंत में कुछ वस्तु हाथ में नहीं लगती है। किन्तु थोड़ा सा व्रत जीव का कितना उद्धार करता है, इसके प्रमाण प्रथमानुयोग रूप आगम में भरे हुए हैं। उस दिन के विवेचन को सुनकर ज्ञात हुआ कि व्रत - दान की प्रेरणा के पीछे कितना प्रेम, कितना ममत्व, कितनी उज्ज्वल करुणा की भावना गुरुदेव के अंत:करण में भरी हुई है । सुनकर ऐसा लगा मानो कोई पिता विषपान करने वाले अपने पुत्र से आग्रह कर यह कह रहा हो कि बेटा ! विषपान मत करो, मेरे पास आओ, मैं तुम्हें अमृत पिलाऊंगा । आगम की आज्ञा रूढ़ से बड़ी है व्रताचरण के विषय में गुरुदेव से किसी ने पूछा था “महाराज ! रूढ़िवश लोग तरहतरह के प्रतिबंध व्रतों में उपस्थित करते हैं, ऐसी स्थिति में क्या किया जाय ?" आचार्य महाराज ने कहा था, “व्रतों के विषय में शास्त्राज्ञा को देखकर चलो, रूढ़ि को नहीं । शास्त्राज्ञा ही जिनेन्द्राज्ञा है। लोक- आज्ञा रूढ़ि है । धर्मात्मा जीव सर्वज्ञ जिनेन्द्र की आज्ञा Satara वाले शास्त्र को अपना मार्ग दर्शक मानेगा, दूसरे शास्त्रों को मोक्ष मार्ग के लिये www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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