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लोकस्मृति पूर्णतया भय विमुक्त रहे आते थे। जब-जब मार्ग में बड़ी से बड़ी विपत्ति आई, तब-तब हम आचार्य महाराज का नाम स्मरण करके कार्य में उद्यत हो जाते थे और उनकी जय बोलते हुए काम करते थे, जिससे विघ्न की घटा शीघ्र ही दूर हो जाती थी। प्रवास में अपार कष्ट होते हैं, किन्तु इन महान् योगी के प्रताप से शूलों का फूलों में परिणमन हो जाता था। दयाधर्म का महान् प्रचार
मार्ग में हजारों लोग आ आकर इस मुनिनाथ को प्रणाम करते थे, इनने उन लोगों को मांस, मदिरा का त्याग कराया है। शिकार न करने का नियम दिया है । इनकी तपोमय वाणी से अगणित लोगों ने दया धर्म के पथ में प्रवृत्ति की थी। आध्यात्मिक आकर्षण __ आचार्य महाराज का आकर्षण अदभुत थी। इसी से उनके पास से घर आने पर चित्त उनके पुनर्दर्शन को तत्काल लालायित हो जाता था। मैं संत समागम का अधिक लाभ लिया करता था। __ मेरा व्रतों की ओर विशेष ध्यान नहीं था । एक दिन की बात है कि अकलूज आदि स्थानों की बात करते-करते, अचानक मेरे मुख से यह बात निकली की यदि अतिशय क्षेत्र दहीगांव में पंचकल्याणक महोत्सव होगा, तो मैं क्षुल्लक दीक्षा ले लूंगा। मेरे शब्द पूज्य आचार्य महाराज के कर्ण गोचर हो गए। उन्होंने मेरे अन्त:करण को समझ लिया। इसके पश्चात् गुरुदेव का अकलूज में चातुर्मास हुआ। वहाँ उनके मर्मर्पशी उपदेश सुनसुनकर मेरी आत्मा में वैराग्य के भाव जग गये । हमने दीक्षा लेने का निश्चय किया। दहीगांव में पंचकल्याणक महोत्सव हो चुका था। सर्वव्यवस्था करने के उपरांत हमने नांदरे में क्षुल्लक की दीक्षा ग्रहण की। यह मेरा पक्का अनुभव है कि आचार्य महाराज के चरणों में निवास करने से जो शांति प्राप्त होती है, वह अन्यत्र नहीं मिलती है। पहले मेरे स्नेही लोग विनोद तथा उपहास करते हुए कहा करते थे कि मैं क्या दीक्षा लूँगा ? किन्तु आचार्य महाराज की वीतराग वाणी ने मेरा मोह ज्वर दूर करके मेरी आत्मा का उद्धार कर दिया। उनके निमित्त से हम कृतार्थ हो गये। __ भट्टारक जिनसेन स्वामी महाकवि भगवत् जिनसेन की गद्दी पर उत्तराधिकारी त्यागी सत्पुरुष थे। हम १३-६-५२ को महिसाल जिला सांगली में उनके पास पहुंचे तथा आचार्यश्री के विषय में उनसे पूछा । तब उन्होंने अपना अनुभव इस प्रकार सुनाया : अपार तेज पुंज
सन् १९१६ की बात है, आचार्य शांतिसागर महाराज हमारे नांदणी मठ में पधारे थे। वे यहाँ की गुफा में ठहरे थे। उस समय वे ऐलक थे। उनके मुख पर अपार
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