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चारित्र चक्रवर्ती में तत्पर रहते थे। एक बार बांच लेने पर अमुक ग्रंथ में अमुक बात लिखी है, ऐसा वे अपनी स्मृति के बल पर बोलते थे। लेन-देन, व्यापार आदि में वे पूर्ण विरक्त थे। छोटा भाई कुंमगौड़ा कपड़े की दुकान पर बैठता था। जब वह बाहर चला जाता था, तब वह (अप्पा) तकिया छोड़कर बैठे रहते थे। लोग आकर पूछते कुंमगौड़ा कुठे गेला, सातगौड़ा? तब वे कहते थे कि वह बाहर गया है। यदि कपड़ा लेना है तो अपने मन से चुन लो, अपने हाथ से नापकर कपड़ा फाड़ लो और बही में अपने हाथ से लिख दो। इस प्रकार की उनकी निस्पृहता थी। वे कुटुम्ब की झंझटों में नहीं पड़ते थे।" पिता का अपार पराक्रम तथा तपस्वी जीवन
“वे सबको शास्त्र समझाते थे तथा लोगों की शंका का समाधान करते थे। उन्होंने बताया था कि हमारे पिता ने लगभग १६ वर्ष तक एक आसन से बैठकर एक ही बार भोजन किया। उन्होंने भारत वर्ष के तीर्थो की वंदना की थी। उन्होंने श्रवणवेलगोला के दर्शन के बाद एकभुक्ति का नियम लिया था तथा घी, दूध, दही आदि सब छोड़ दिये थे। सेठ हीराचंद नेमचंद के द्वारा प्रकाशित जैनतत्त्व दर्शन पुस्तक के बाँचने से हमारे पिताजी की धार्मिक श्रद्धा स्वच्छ हुई थी। पिताजी बड़े पराक्रमी, प्रभावशाली और महान् तेजस्वी थे। सौ व्यक्ति भी उन पर आक्रमण नहीं कर सकते थे। हमारे पूर्वज बीजापुर जिले के सारबिद्री ग्राम से भोज' आये थे। वे आठ बैलों से खींचने वाली गाड़ियों पर अपनी सम्पत्ति लादकर वहाँ आए थे, कारण बीजापुर की ओर यवनों ने भयंकर अत्याचार मचा रखा था।"
उन्होंने यह भी बताया कि सब रस छोड़ने से हमारे पिता का बलवान शरीर कृश होता जा रहा था, उस समय हम उनको नारियल का दूध निकालकर भोजन में मिलाकर देते थे, ताकि उस स्निग्ध पदार्थ से उनका शरीर टिका रहे। पीछे उन्होंने आहार तक अत्यंत न्यून कर लिया था। वे एक वर्ष पर्यन्त एक कटोरी प्रमाण भोजन लेते रहे। उनकी समाधि बड़ी महत्वपूर्ण थी। हम और महाराज उनके दोनों तरफ बैठे थे। उन्होंने लोगों को रोते देखकर कहा, हमें आत्मकल्याण करना है। यदि तुम हल्ला करोगे, तो हम इस घर में नहीं रहेंगे । उन्होने अपने हाथ से केशों को उखाड़ दिया था व बैठने की गद्दी अलग कर दी थी। निरन्तर धर्म ध्यान में लीन हो, बड़ी सावधानी से शरीर का परित्याग किया था। पिता की मृत्यु होने पर महाराज ने दुःख नहीं किया था, वैराग्य मूर्ति बने रहे थे। वंश में जिन-भक्ति की परम्परा __ उन्होंने यह भी बताया, “आचार्य महाराज के १८ वर्ष की अवस्था में मुनि बनने के परिणाम थे। उस समय हमारी धार्मिक रुचि थी, किन्तु उनकी दीक्षा के बाद हमारे भावों में परिवर्तन हुआ। हमारे घराने में बहुत पहले से जिन भगवान् की भक्ति
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