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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक ३३ आ जाता है, वैसे ही साधु संसार-जल में रहता हुआ भी अष्टविध कर्मजल को विच्छिन करके तथा विषय-भोगरूपी कीचड़ को भेदकर संसार से ऊपर उठ जाता है । इसी कारण उत्पन को मैंने निर्वाण से उपमा दी है । अन्त में भगवान् महावीर इस सूत्र का उपसंहार करते हुए कहते हैं- आयुष्मान् श्रमणो मैंने अपनी केवल प्रज्ञा से जानकर जैसा जिसका स्वरूप है, वैसा ही यथातथ्यरूप में कहा है । अर्थात् केवलज्ञानरूपी प्रखर प्रज्ञा से जानकर पुष्करिणी आदि पूर्वोक्त पदार्थों का रूपक तुम्हारे समक्ष यथार्थ रूप से प्रस्तुत कर दिया है । सारांश सातवें सत्र में बताया गया है कि श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणश्रमणियों की जिज्ञासा देखकर उनके समक्ष दृष्टान्त के अर्थघटन को बताने की प्रतिज्ञा की है । आठवें सूत्र में महावीर प्रभु ने क्रमशः मनुष्य-लोक को पुष्करिणी से, कर्म को उसके पानी से, कामभोग को उसके कीचड़ से, जनजनपद को पुष्करिणी के बहुत से श्वेतकमलों से, शासक को प्रधान श्वेतकमल से पंकग्रस्त चार मनुष्यों को अन्यतीर्थिकों से, धर्म को सफल भिक्षु से, धर्मतीर्थ को तट से, धर्मकथा को शब्द से तथा निर्वाण को सृष्टि पुष्करिणी से उत्तम श्रेष्ठ श्वेतकमल के बाहर आने से उपमा देकर रूपक का अर्थघटन किया है । मूल पाठ इह खलु पाईणं ना पडोणं वा उदीणं वा दाहिणं वा संतेगद्या मणुस्सा भवंति अणुपुव्वेणं लोगं उवदन्ना, तं जहा- आरिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोत्ता वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, रहस्समंता वेगे, सुवन्ना वेगे दुव्वन्ना वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे; तेसि च णं मणुयाणं एगे राया भवइ, महया हिमवंत मलय-मंदर-महिंदसारे अच्चंत विसुद्ध रायकुलवंसप्पसूते निरं तररायलवखणविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपइए सव्वगुणसमिद्ध े खत्तिए मुदिए मुद्धाभिसित्ते माउपिउसुजाए दयप्पिए सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे मसदे जणवयपिया जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे नरपवरे पुरिरुपवरे पुरिससीहे पुरिससी विसे पुरिसवरपोंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिन्न विउलभवणस्यणास जाणवाहणाइरणे बहुधणबहुजाय रूवरयए आओ गपओगसंपत्ते विच्छडिडयपरभत्तपणे बहूदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए परिपुष्णकोसकोट्ठागाराउहागारे बलवं दुब्बलपच्चामित्त ओहय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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