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________________ सूत्रकृतांग सूत्र जैसे कोई अविवेकी मनुष्य पुष्करिणी के उस प्रधान श्वेतकमल को निकालने के लिए पुष्करिणी में प्रवेश करके बीच में ही उसके भारी कीचड़ में फंस जाता है, और वह अपने को तथा उस श्वेतकमल को निकालने में समर्थ नहीं होता, वैसे ही जो मनुष्य इस मनुष्यलोक में प्रवेश करके मनुष्यलोकरूपी पुष्करिणी के विषय-भोगरूपी कीचड़ में फंसा हुआ है या फँस जाता है, वह अपने आपका तथा मनुष्यों में प्रधान राजा आदि का संसार से उद्धार करने में समर्थ नहीं होता। इस तुल्यता को लेकर हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने विषय-भोग के कीचड़ या मिथ्या-मान्यताओं के दल-दल में फंसे हुए अन्यतीथिकों की तुलना चार दिशाओं से आकर जो पुष्करिणी के कीचड़ में फंस जाते हैं, उन चार पुरुषों से की है । जैसे वे चारों पुरुष पुष्करिणी में से कमल को लाने में समर्थ नहीं हुए, बल्कि कीचड़ में फंस गये और अपना उद्धार भो न कर सके, वैसे ही अन्यतीथिक भी विषय-भोगरूपी पंक में या मिथ्या-मान्यताओं के दल-दल में फंसकर न तो स्वयं अपना उद्धार कर सकते हैं और न ही श्वेतकमलरूपी शासक का उद्धार कर सकते हैं । जैसे कोई विद्वान् पुरुष पुष्करिणी के भीतर न घुसकर उसके तट पर ही खड़ा होकर सिर्फ आवाज देकर कमल को बाहर निकाल लेता है, इसी प्रकार राग-द्वषरहित धार्मिक साधु पुरुष विषय-भोग का त्याग करके धर्मोपदेश के द्वारा राजा-महाराजा आदि को संसार-पुष्करिणी से बाहर निकाल लेते हैं, यानी वे उसका उद्धार कर देते है, इसलिए मैंने राग-द्व षरहित उत्तम साधु को भिक्षु कहा है। जैसे वह विद्वान् पुरुष पुष्करिणी के तट पर रहा, वैसे ही बुद्धिमान् भिक्षु उत्तमधर्म में या उत्तमसाधुधर्मतीर्थ में स्थित रहते हैं। इसलिए श्रमणो ! मैंने धर्मतीर्थ को मनुष्यलोकरूपी पुष्करिणी का तट कहा है। जैसे पुष्करिणी का अन्त तट कहलाता है, और उससे आगे के भाग को पुष्करिणी कहते हैं, वैसे ही संसार की चरमसीमा धर्मतीर्थ है। धर्मतीर्थ संसार का अन्त करने वाला है, लेकिन लौकिक तीर्थ नहीं। जैसे विद्वान पुरुष श्वेतकमल को सिर्फ शब्द के द्वारा बाहर निकाल लेता है, इसी प्रकार विद्वान् साधु धर्मोपदेश (धर्मकथा) के द्वारा राजा-महाराजा आदि को संसाररूपी पुष्करिणी से बाहर निकाल लेते हैं। इसीलिए धर्मकथा को मैंने भिक्षु का शब्द कहा है । धर्मकथा द्वारा अनेक मानव संसार से पार किये जाते हैं। इसीलिए शब्द से धर्मकथा की उपमा दी गई है। जैसे कमल जल और कीचड़ को त्यागकर बाहर आता है, इसी तरह उत्तम पुरुष अपने अष्टविध कर्मों तथा विषय-भोगों को त्यागकर निर्वाण-पद को प्राप्त करते हैं, अतः निर्वाण-पद की प्राप्ति को ही मैंने श्वेतकमल का पुष्करिणी से बाहर निकल आना कहा है । अथवा जैसे जल के अन्दर रहा हुआ कमल कीचड़ को भेदकर ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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