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सूत्रकृतांग सूत्र जैसा कि यहाँ कहा गया है--"किट्टिए नाए समणाउसो' अर्थात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कहते हैं-~आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने तुम्हारे सामने अभी तक जो दृष्टान्त या रूपक प्रस्तुत किया है, इसका अर्थ तुमको स्वयं समझ लेना चाहिए। ऐसा कहने के पीछे दो कारण प्रतीत होते हैं-- एक तो यह कि भगवान महावीर अपने श्रमण-श्रमणियों का बौद्धिक परीक्षण लेना चाहते हों, दूसरा यह कि अगर उन्हें इसका अर्थ-घटन करना यथार्थ रूप से नहीं आता होगा तो वे नम्रतापूर्वक विनीत भाव से मुझे पूछेगे । यही कारण है कि श्रमणों ने अपनी मन्दबुद्धिता का स्पष्ट परिचय देकर थोड़ा-बहुत अर्थघटन करना आता भी होगा, तब भी कहीं गलत हो जाने की आशंका से या यों ही ऊटपटांग कहने से सत्यमहाव्रत में दोष लगने की भीति से अथवा भगवान महावीर के श्रीमुख से साक्षात् श्रवण करने की इच्छा से विनीत भाव से वन्दन-नमन करके निवेदन किया-"प्रभो ! आपके श्रीमुख से हम सबने दृष्टान्त तो सुन लिया, लेकिन हम पूरी तरह से उसका रहस्य नहीं समझ पाये हैं। अतः प्रभो ! आप ही अनुग्रह करके उक्त दृष्टान्त का रहस्यार्थ हमें समझाने की .. कृपा करें।"
श्रमण-श्रमणियों की इस प्रकार की विनय-भक्तिपूर्ण जिज्ञासा जानकर श्रमण भगवान महावीर ने भी ऐसे जिज्ञासुओं को तत्त्वज्ञान प्रदान करना उचित समझकर उन समस्त बहुसंख्यक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को सम्बोधित करते हुए कहा- "आयुष्मान् श्रमणवर्ग ! अभी मैं तुम्हारी जिज्ञासा जानकर लो तुम्हें उक्त दृष्टान्त का रहस्यार्थ कहता हूँ, उसके पर्यायवाची शब्दों आदि द्वारा उसका पुर्जा-पुर्जा खोलकर मैं शीघ्र ही प्रगट करूंगा; हेतुओं, दृष्टान्तों आदि के द्वारा भी मैं तुम्हें समझाता हूँ अर्थात् हेतु और दृष्टान्त द्वारा अभी तुमको समझाता हूँ, फिर अर्थ (प्रयोजन), हेतु (कारण) और निमित्त के साथ इस दृष्टान्त को पुनः-पुनः बतलाता हूँ। तात्पर्य यह है कि निमित्त
और प्रयोजन आदि को भली-भाँति समझाते हए उसके रहस्य का प्रतिपादन करता हूँ।"
इसके पश्चात् सभी उपस्थित श्रमण-श्रमणियों को लक्ष्य करके भगवान महावीर स्वामी प्रतिज्ञात अर्थ (प्रस्तुत दृष्टान्त के रहस्य) का प्रतिपादन करते हैं । अर्थ अत्यन्त दुरूह होने से वे हृदयंगम कराने की दृष्टि से कहते हैं-देखो श्रमणो ! यह चौदह रज्जु परिमाण अतिविस्तृत लोक (सृष्टि) है, जो विविध प्रकार की रुचि, बुद्धि शक्ति आदि से युक्त जीवों से परिपूर्ण है। इस लोक के लिए मैंने अपनी बुद्धि से परिकल्पना की है कि यह लोक ही वह पुष्करिणी है। जैसे पुष्करिणी में अनेक प्रकार के पुष्प एवं कमल उत्पन्न होते हैं, और समय पाकर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही इस सृष्टि में अगणित प्रकार के जीव पैदा होते और अपने-अपने पुण्य-पापकर्मानुसार वे जन्म
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